Thursday, 28 May 2020

ब्राह्मणवाद के दुष्चक्र में बौद्ध धम्म

भारत के बुद्धिज़्म में प्रचलित अचार-विचार कितने प्रासंगिक हैं, सीलोन में बुद्धिज़्म मूलरूप में हैं अथवा उसमे में बौद्ध पंडों द्वारा बदलाव किया गया हैं। इसके बारे में बाबा साहेब पड़ताल की राय रखते हैं ताकि धम्म को इसके मूल स्वरुप में जाना जा सके।
25 मई 1950 से "सीलोन बुद्धिस्ट" कांग्रेस द्वारा सीलोन की पुरानी राजधानी काण्डी में "विश्व बुद्ध परिषद" का आयोजन किया गया था। 26 मई 1950 के दिन बाबा साहब को बोलने का मौका मिला। तब बाबा साहब ने वहां उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए बाबा साहेब ने कहा कि -
"मैं चाहता हूं कि भारत में बौद्ध धम्म के केवल ब्राह्योपचार का ही अनुसरण किया जाता है या फिर सही बुद्ध धम्म का अनुसरण किया जाता है, इस बारे में भारतीय जाने बहुत धर्म जागृत है अथवा केवल परंपरागत है, यही मैं देखना चाहता हूं।"
ये सत्य हैं कि समय के साथ-साथ ब्राह्मणीकरण के चलते बुद्धिज़्म में ना सिर्फ ब्राह्मणी कर्मकांडों का प्रवेश हो चुका हैं बल्कि बुद्धिज़्म में भी एक पुरोहित वर्ग का जन्म हो चुका हैं। ये वर्ग दो-चार किताबों का संदर्भ देकर लोगों को कर्मकाण्डों में उलझाने का कार्य कर रहा हैं। ये और बात हैं कि इनके स्रोत अक्सर मूलस्रोत से होने के बजाय द्वितीय स्रोत (Secondary Source) होती हैं।
इनके मुताबिक ब्राह्मणी दिवाली के दिन दीपदान उत्सव मानना चाहिए। "ॐ मणि पद्मे हुं" का जाप करना चाहिए।  "ॐ" और स्वास्तिक सब बुद्धिज़्म के अंग हैं, आदि। इनके ऐसे तर्कों को सुनकर प्रतिक्रियावादी बुद्धिष्ट खुश हो जाते हैं। इनके ऐसे बातों से हिन्दुओं का वो फिरका भी सहज महसूस करने लगता हैं, जिसकों कृष्ण-साईं और बुद्ध दोनों की स्वार्थसिद्धि के अनुसार जरूरत होती हैं। नतीजा, बुद्धिज़्म का ब्राह्मणी संस्कृति से घालमेल। मतलब कि बुद्धिज़्म में कर्मकाण्डों व अंधविश्वासों का प्रवेश। अंततः बुद्धिज़्म में हानि।
हालाँकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता हैं कि बुद्धिज़्म की संस्कृति बहुत समृद्धि रहीं हैं। आज भारतियों के ब्राह्मणीकरण के बाद धम्म के बहुत सारी रीति-रिवाज आदि बहुत सारे प्रतीक ब्राह्मणी संस्कृति के द्योतक बन गए हैं। ऐसे में भारत में यदि बुद्धिज़्म को पुनः स्थापित करना हैं तो लोगों में भ्रांतियाँ फ़ैलाने के बजाय ब्राह्मणी प्रतीकों व ब्राह्मणी चेंटिंग की पद्धति से अलग आम जनमानस के समझ में आने वाली भाषा में बुद्धिज़्म के मूल सिद्धातों को लोगों तक पहुँचाने की जरूरत हैं।
जहाँ तक हम समझ पाए हैं बुद्धिज़्म आज जनमानस के जीवन को सरल, सुगम, सुखद और समृद्ध बनाने वाली जीवन-शैली हैं। लेकिन दुखद हैं कि बौद्ध धम्म के पंडों ने अपनी विशिष्टता को कायम बनाये रखने के लिए धम्म को जटिल बना दिया हैं। क्योंकि ये स्थापित सत्य हैं कि जब आप किसी सिद्धांत/पद्धति/पंथ/धर्म आदि को जटिल कर देते हैं तो वो आम जनमानस से दूर हो जाती हैं। लोगों के लिए उसको समझना कठिन हो जाता हैं। ऐसे में उन पण्डों का व्यापार और उनकी सामाजिक विशिष्टता व महत्व बढ़ जाता हैं। इसके पश्चात् ये पंडा वर्ग अपने व्यापार व सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए उस सिद्धांत/पद्धति/पंथ/धर्म को कठिन से कठिन बनाये रखने के लिए नित नये कर्मकाण्डों को जन्म देता रहता हैं। शब्दों के मायाजाल में लोगों को उलझाने के लिए नई-नई व्यख्या करता हैं। अपने आपको जस्टिफाई करने के लिए नई-नई किताबे लिखता हैं। क्योंकि लिखित की प्रामणिकता अधिक होती हैं। यहीं ब्राह्मणों ने किया जिसके परिणाम स्वरुप ब्राह्मणवाद स्थापित हो सका। आज यहीं कार्य बुद्धिज़्म के पंडे भी कर रहे हैं। इन्होने अपने निजी स्वार्थ व मंशा की पूर्ती के लिए धम्म को हानि पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। इनकी सफलता की वजह हैं समरसतावादी लोग। ये समतावादी (यथास्थितिवादी) लोग समता (परिवर्तनवादी) के लिए खतरा हैं। समरसतावादियों ने पहले बुद्धिज़्म को निगल लिया हैं और अब बाबा साहेब को निगलने के लिए कार्यरत हैं। 
बुद्धिज़्म के मानने वालों को ये सोचने की जरूरत हैं कि आज बुद्धिज़्म में जितना कर्मकाण्ड (ढोंग-पाखण्ड) प्रवेश कर चुका हैं क्या वाकई उसको बुद्ध ने बनाया था? क्या बुद्ध के पास इतना वक्त रहा कि वे नित नए नियम बनाये। यदि धम्म को कानून की किताबों में ही बांधना था तो बुद्ध ने कुरान, बाइबिल, गीता आदि की तरह कोई एक पवित्र ग्रन्थ क्यों नहीं सृजित करवाया? हमारा स्पष्ट मानना हैं कि बुद्ध ने कुछ मूल सिंद्धांत जैसे कि त्रिशरण, पंचशील, अष्टांगिक मार्ग बताया होगा। इसको समझने के लिए अलग-अलग उदहारण दिए होगें। समयानुसार कुछ अनुशासन बताये होगें। लेकिन बुद्ध ने कर्मकाण्डों को कभी बल नहीं दिया होगा। ऐसे में हमारा स्पष्ट मत हैं कि जितने भी कर्मकाण्ड बुद्धिज़्म में व्याप्त हो गए हैं ये सब बुद्धिज़्म में पैदा हुए पण्डों की वजह से हैं।
समरसतावादी पंडों से पूछने पर वे कहते हैं कि बाबा साहेब ने खुद कहा हैं कि "मैं आप लोगों को एक कठिन धम्म दे रहा हूँ"। ये समरसतावादी पंडे जिस तरह से बाबा साहेब का नाम उछाल कर खुद को जस्टिफाई कर रहें हैं उससे स्पष्ट हैं की बाबा साहेब ने ऐसा कुछ नहीं कहा होगा। और यदि कहा भी होगा तो उस संदर्भ में बिलकुल नहीं कहा होगा जिस संदर्भ में ये पंडे कह रहें हैं। 
बौद्ध धम्म में पैदा हुए इन पंडों से यदि आप ज्यादा सवाल जबाब करेगें तो ये आप को दोषी करार कर देगें क्योकि आपने उनकी और उनके जैसों की लिखी किताबों नहीं पढ़ा हैं। आप फेसबुक पर उनसे ज्यादा सवाल करते हैं, इसलिए वे आपको फेसबुकिया विद्वान कहते हैं। वे आपके सवाल और आपकी असहमति पसंद नहीं करते हैं। वे चाहते हैं कि आप उनकी व उनके जैसों की किताबें पढ़िए। क्योकि यदि आपने उनकी व उन जैसों को चार-छह किताबें पढ़ ली तो आप सवाल ही नहीं करेगें। आप उनके जैसे ही बन जायेगें। यहीं वे चाहते हैं। नतीजा - धम्म में पंडों की सत्ता और धम्म के मूल तत्वों की हानि। फिलहाल भारत में धम्म के डूबने और १९५६ के बाद वांछित प्रसार ना होने की एक मुख्य वजह ये समरसतावादी बौद्ध पंडे हैं। 
फिलहाल बाबा साहेब का नाम लेकर बौद्ध धम्म में पैदा हुए समरसतावादी बौद्ध पंडों द्वारा धम्म को जो कठिन बताया जा रहा हैं, इसमें समरसतावादी पंडों ने यहाँ पर "कठिन" की परिभाषा क्या हैं, ये स्पष्ट नहीं किया। क्या बाबा साहेब देश की अशिक्षित जनता को कठिनता में झोंककर धम्म का प्रसार कर सकते थे? बिलकुल नहीं। इस लिए बौद्ध धम्म कठिन नहीं हो सकता हैं। यदि कठिन होता तो दुनिया में फ़ैल ही नहीं सकता था।
हमारा विचार हैं कि धम्म सरल, सुगम सुखद व समृद्ध बनाने वाली जीवन शैली थी। इसलिए धम्म ने दुनिया के कोने-कोने में अपने आपको स्थापित कर लिया। दूसरी बात ये भी हैं कि यदि बाबा साहेब ने धम्म कोकठिन कहा भी होगा तो उसका मतलब भारत के लोगों के संदर्भ में और ब्राह्मणी व्यस्था के संदर्भ में रहा होगा। क्योकि ब्राह्मणी धर्म का पालन करना सबसे आसान हैं।
आप किसी की भी पूजा कर लीजिये। आप ईश्वर को मानिये या नकार दीजिये। आपने कोई हिन्दू ग्रन्थ पढ़ा हो या न पढ़ा हो। कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। स्पष्ट हैं कि ब्राह्मणी धम्म एक अनुशासनहीन धर्म हैं, जिसका पालन करना बहुत आसान हैं। और आज के समय में भारतीय लोग इस अनुशासनहीन ब्राह्मणी धर्म के आदी हो चुके हैं। ऐसे में अनुशासनहीन को किसी सरलतम अनुशासन में रखना भी बहुत कठिन कार्य है। इस संदर्भ में बाबा साहेब ने बुद्धिज़्म को कठिन बताया होगा, ये संभव हैं। लेकिन जिस तरह से बाबा साहेब का नाम लेकर बौद्ध पंडों ने लोगों को गुमराह करने का कार्य किया हैं वो ना सिर्फ निंदनीय हैं बल्कि बुद्धिज़्म को शर्मसार करने वाला भी हैं।
ऐसे में स्पष्ट हैं कि बुद्धिज़्म को ब्राह्मणी ब्राह्मणों से तो बचाया जा सकता हैं लेकिन बुद्धिज़्म में पैदा हो चुके ब्राह्मणों से बुद्धिज़्म को बचाना कठिन हैं।
फिलहाल भारत में बुद्ध धम्म के मूल स्वरुप में आये बदलाव और कर्मकाण्डों व रीति-रिवाजों की पड़ताल के संदर्भ में 26 मई 1950 के दिन "सीलोन बुद्धिस्ट कांग्रेस" द्वारा सीलोन की पुरानी राजधानी काण्डी में "विश्व बुद्ध परिषद" में बाबा साहेब कहते हैं कि -
"बौद्ध धम्म के आचार (पद्धति) और उपचार (विचार) भारत में देखने को नहीं मिलते हैं। उन्हें देखने के मौका लाभ उठायें। साथ यह भी देखें कि बौद्ध धम्म के मूल सिद्धांतो से मेल ना खाने वाली श्रद्धाओं से बौद्ध धर्म कितनी ग्रस्त है? और, मूल विशुद्ध स्वरुप धम्म कितना बचा है? और दुनिया सीलोन को बौद्धधर्मी कहती है। इसलिए सीलोन बौद्ध धम्म अनुयायी हैं। या कि वह धम्म आज भी वहां जीवित स्वरूप में प्रचलित है। इस बारे में सोच करें।"
इससे साफ जाहिर हैं कि बाबा साहेब बौद्ध धम्म के पंडों द्वारा बुद्धिज़्म की मूल भावना को किनारे कर धम्म को ब्राह्मणवादी रोजगार बना दिया गया था। इसलिए बाबा साहेब इसमें कुछ नए नियम व अनुशासन जोड़ना चाहते थे। जिससे कि बौद्ध पंडों की दुकान बंद हो सके और बुद्धिज़्म अपने मूल स्वरुप में मूल तत्वों के साथ सुगमता पूर्वक आम जान तक पहुंचकर उनके लिए कल्याणकारी साबित हो सके।
रजनीकान्त इन्द्रा
एमएएच इग्नू-नई दिल्ली

Wednesday, 21 August 2019

कॉपी चेक करते समय कैसे पता लगा लिया जाता हैं कि कौन किस कैटेगरी/जाति का है?

बात उस समय की हैं जब हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की पढाई कर रहें थे। द्वितीय सेमेस्टर के संविधान (Constitutional Law) के पेपर में हमें १७/१०० मार्क्स मिले थे। हम ही नहीं हमारे दोस्त भी चकित थे कि रजनीकान्त इन्द्रा के इतने मार्क्स कैसे आ सकते हैं? सब यहीं कह रहे थे कि संविधान रजनीकान्त का पसंदीदा विषय है, इसी के लिए रजनीकान्त ने एलएलबी में प्रवेश लिया था, और इसी में फेल हो गये। फ़िलहाल, कारण पांचवें सेमेस्टर तक समझ नहीं आया। दुबारा परीक्षा दिया, और ६०/ १०० मार्क्स से उत्तीर्ण हुए।
इसके पश्चात् पांचवें सेमेस्टर के Women and Law Relating to Children के पेपर में भी इसी तरह की दुर्घटना घटी। चूँकि परीक्षा महिला और बच्चों से जुड़ें अधिकारों सम्बंधित था और सवाल भी ऐसा था की इस संदर्भ में मूलभूत अधिकारों के संदर्भ बाबा साहेब का जिक्र आवश्यक ही था। हमने सवालों का उत्तर दिया। लेकिन जब परिणाम आया तो हमें सिर्फ और ३५/१०० मार्क्स मिले। हम एक फिर निराश व चकित थे। इसके पश्चात् जब हमने कॉपी जॉचते समय जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया तो हमारे दोस्तों को हमारी बात पसंद नहीं आयी! उनका तर्क था कि जब कॉपी पर सिर्फ रोल नम्बर होता है तो प्रो. कैसे पता चलेगा कि कौन किस जाति का है?

दोस्तों के मुखारबिंदु से ऐसी बात सुनते ही हमने मुद्दे को बदल दिया, और कुछ समय बाद अपने दोस्तों से बाबा साहेब के संदर्भ में कुछ बोलने के लिए कहा! चूँकि परीक्षा लॉ की थी तो महिला और बाल अधिकारों समेत मूलभूत अधिकारों के संदर्भ में सवाल पूछा गया था! सबने लगभग जो लिखा, हमारे पूछने पर एक-दो लाइन में वहीं बोला!
 ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार......
पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
हमने (दलित) कहा - बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
उनके बोले लफ्जों का हवाला देते हुए हमें कहा कि किसी के प्रति आपकी भाषा उस इन्सान के प्रति आपकी सोच को बयां करती हैं। आपकी ये सोच उस इन्सान के प्रति आपके मन में मौजूद सम्मान और नफरत को बयां करती हैं। इन्सान की ये सोच ना सिर्फ उसकी बोल-चाल की भाषा साफ-साफ झलकती हैं बल्कि उसकी लिखावट और लेख तक में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं।  
इसके पश्चात हमने कहा कि ब्रहम्ण बाबा साहेब से सख्त नफ़रत करता हैं, इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण कभी भी सम्मान से बाबा साहेब का नाम ना तो बोल ही सकता है, और ना ही लिख सकता है! इसलिए ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार....
मान्यवर साहेब, बहन जी के साथ अन्य बहुजन नेतृत्व के संघर्षों के परिणामस्वरूप मण्डल आयोग की सिफारिशों के चलते पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण के कारण पिछड़ी जातियों में कुछ जागरूकता आयी हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों के ये जागरूक लोग बाबा साहेब व उनकी समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित मानवता वाली वैचारिकी की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। इसलिए ये लोग बाबा साहेब का थोडा-बहुत सम्मान करते हैं! इसलिए पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार....
लेकिन जहॉ तक रही बात दलितों की तो वे "अम्बेडकर" शब्द बोलें या ना बोलें लेकिन "बाबा साहेब" जरूर बोलते हैं, लिखते हैं! और, ये स्थापित सत्य हैं कि दलित (खासकर चमार/जाटव) बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को "बाबा साहेब" ही कहकर सम्बोधित करती हैं।
बाबा साहेब के प्रति अलग-अलग वर्गों का ये रवैया ना सिर्फ उनकी आम जिंदगी में शुमार हैं बल्कि उनकी आम बोलचाल की भाषा और उनकी लेखनी तक में स्पष्ट दिखाई पड़ती है! अब सवाल यह है कि यदि भाषा और लेखनी के आधार हम बतौर छात्र किसी की जाति या कैटेगरी से वाकिफ हो जाते हैं तो 20-25 साल से प्रोफेसरी कर रहा प्रोफ़ेसर क्या कॉपी जॉचते समय स्टूडेंट की लेखनी से उसकी जाति का पता नहीं लगा पायेगा? उत्तर सकारात्मक ही हैं। 
हालांकि हमने कॉपी देखने अर्जी डाली थी तो कुछ दिन बाद तय समय-सारणी के मुताबिक लॉ विभाग के एचओडी रहे प्रो. मिश्रा और उनके साथ दो अन्य सवर्ण प्रोफेसर्स की मौजूदगी में कॉपी का हमने अवलोकन किया। 
फ़िलहाल, कॉपी का अवलोकन कराने से पूर्व ही प्रो. मिश्रा ने नियम-शर्तों से हमें वाकिफ करा दिया कि यदि किसी प्रश्नोत्तर का मूल्यांकन नहीं हुआ तो वह हो जायेगा, यदि मार्क्स के योग में कोई गलती हैं तो वह सुधार दी जाएगी, लेकिन यदि प्रश्नोत्तरों का मूल्यांकन किया जा चुका हैं तो उसमे सुधार की कोई भी गुंजाइश नहीं हो सकती हैं, उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। 
हमने अपनी कॉपी को लगभग ५० मिनट उलट-पलट कर देखा, अपने प्रश्नोत्तरों बार-बार पढ़ा तब जाकर समझ आया कि नम्बर काम क्यूँ मिले हैं। इसके पश्चात् हमने प्रो. मिश्रा को अपनी देखने के लिए निवेदन किया। पहले तो नियम-शर्तों का हवाला देकर उन्होंने देखने से मना कर दिया लेकिन हमारे बार-बार निवेदन करने पर उन्होंने हमारी कॉपी का अवलोकन किया। हमारी कॉपी को कई बार उलटने-पलटने के पश्चात प्रो. मिश्रा ने कहा - सब तो सही लिखा है, लिखावट भी अच्छी है लेकिन नम्बर इतने कम कैसे हो सकते हैं? लगता है कि प्रो. ने कॉपी सही से जॉची नहीं या फिर! "या फिर" के बाद प्रो. मिश्रा जी कुछ नहीं बोले! उन्होनें कहा कि यदि मार्क्स बढ़ाना चाहते हो तो दुबारा परीक्षा दे दीजिए, मार्क्स बढ़ जायेगें.....लेकिन आप पास तो हो ही गये हो, अब इन चक्करों में पड़ने के बजाय आप हायर स्टडी की तरफ जाओं, आप सिविल सर्विसेज की तैयारी कीजिये! प्रो. के इस स्टेटमेंट ये साबित किया है हमारे प्रश्नोत्तर सही थे, और हमारे साथ जातिगत भेदभाव किया गया था! 
फ़िलहाल हमारे मार्क्स अच्छे रहें तो प्रथम श्रेणी में परिणाम तय था। इसलिए हमने दुबारा परीक्षा देकर मार्क्स बढ़ाने के बजाय अपनी मार्क्सशीट में वो अंक अंकित सुरक्षित रखना उचित समझा। हमारी मार्क्सशीट में दर्ज ये मार्क्स लखनऊ विश्वविद्यालय में हमारे साथ हुए जातिगत भेदभाव की कहानी बयां करता रहेगा। अंत में परीक्षा परिणाम आया, और ब्राह्मणों-सवर्णों व शूद्र ब्राह्मण रोगियों की तमाम जद्दोजहद के बावजूद हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
याद रहें, जीवन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर बाबा साहेब जैसे विद्वान के नाम का जब आज भी देश का ब्रहम्ण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र समाज सम्मान से उच्चारण तक नहीं कर सकता है तो दलित-अछूतों पर अत्याचार व इनका अपमान तो इन चारों वर्णों का ब्रहम्णी धर्म है! इसमें चकित होने की कोई बात नहीं है!
-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-----------------------------------

Tuesday, 27 February 2018

द ग्रेट चमार - बहुजन समाज की एकता के लिए घातक संकल्पना

भारत के मूलनिवासी बहुजनों के नाम पत्र 

दिनांक - अक्टूबर २१, २०१७ 

प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,

जैसा कि सर्वविदित है कि बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर भारत की सरजमीं से कैंसर रुपी जाति, वर्ण व क्रूर अमानवीय निकृष्टतम ब्राह्मणी व्यावस्था को खत्म करके बुद्ध की कर्मभूमि भारत में समता मूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे! परिणामस्वारूप बाबा साहेब ने ताउम्र संघर्ष किया। इसी संघर्ष के दरमियान "जाति का उन्मूलन", जो कि 1935 में लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल में दिया जाने वाला भाषण था, को किताब का स्वरूप दिया। बाबा साहेब के ही नक्श-ए-कदम पर चलते हुए मान्यवर काशीराम साहेब भी जाति, जाति व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को खत्म करना चाहते थे, बहुजन समाज को संगठित कर सकल बहुजन समाज को आत्मसम्मान व स्वाभिमान से जीने की अम्बेडकरी राह पर ले जाना चाहते थे। इसलिए उन्होनें हमें मूलनिवासी बहुजन नाम से पुकारा है।

हालाँकि, बौद्ध भारत पर ब्राह्मणी आतंकवाद के आक्रमण के चलते भारत का मूलनिवासी बहुजन समाज दो अमानवीय भागों में बंट गया। एक, ब्राह्मणी धर्म का शूद्र। दूसरा, ब्राह्मणी धर्म को नकारने वाले बहिष्कृत-अछूत। सरल भाषा में कहें तो मूलनिवासी बहुजन समाज का वह हिस्सा जिसने ब्रहम्णों-सवर्णों की गुलामी स्वीकार कर ली, ब्राह्मणी संस्कृति की दासता स्वीकार कर ली, वही नारीविरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म के तहत शूद्र कहलाये!

और

मूलनिवासी बहुजन समाज का वह हिस्सा जिसने ब्रहम्णों-सवर्णों की गुलामी करने से इनकार कर दिया, ब्रहम्णों-सवर्णों की संस्कृति का बहिष्कार कर दिया, वो बहिष्कृत-अछूत कहलाये!

फ़िलहाल यदि ब्राह्मणी आतंकवाद की बात करें तो बहुजन समाज के साथ हो रहे ब्राह्मणी अत्याचारों की इसी कड़ी में अप्रैल-मई २०१७ में सहारनपुर का काण्ड हुआ जिसमें ब्राह्मणी सरकार ने पीड़ित वंचित जगत को ही गुनहगार बनाकर कर कटघरे में खड़ा कर दिया है। सहारनपुर में चमार जाति के लोगों ने शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए नीच समझी जाने वाली चमार जाति को नए रूप में परिभाषित करते हुए "द ग्रेट चमार" की नई संकल्पना गढ़ी। 
हालांकि "द ग्रेट चमार" की यह संकल्पना स्थानीय स्तर पर सहारनपुर में बुद्ध के सम्यक अनुयायी अछूत समाज के साथ जो अत्याचार हो रहा था उसके प्रतिकार व अपनी खोई धाती को पुनः स्थापित करने का एक प्रयास था। ये स्थानीय स्तर पर दलित वंचित अछूत समाज को कुछ राहत दे सकने के लायक रहा हो सकता है लेकिन जब सहारनपुर का मुद्दा नेशनल मुद्दा बन गया तो ऐसे में "द ग्रेट चमार" की संकल्पना खुद बहुजन समाज के ही गले के लिए फांसी का फंदा बन गया। इसका कारण था - द ग्रेट चमार की संकल्पना को आगे लाने वाले युवाओं की नासमझी, अज्ञानता, अदिश जोशीला नेतृत्व, या यूँ कहें कि उनकी उन्मादी मूर्खता। 
इन नवयुवकों के कृत्यों से स्पष्ट होता है कि ये नवयुवक बाबा साहेब की भक्ति व उनकी नीले रंग की कोट तक ही सीमित रह गए है। जबकि बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा से स्पष्ट है कि बाबा साहेब को विवेकशील अनुयायी चाहिए, भक्त नहीं। अनुयायी विवेकशील, न्यायप्रिय, समता, स्वतंत्रता, बंधुता, मानवता, तर्कशील और वैज्ञानिकता से ओत-प्रोत होता है जबकि भक्त मूर्ख होता है, भक्त की अपनी कोई सोच नहीं होती है, भक्त का दिमाग शून्य होता है, भक्त का जीवन अपने आकाओं के हुक्म की तामील करने के लिए ही होता है, भक्त को न्याय-अन्याय से कोई मतलब नहीं होता है, भक्त का जीवन-लक्ष्य खुद को अपने आकाओं के चरणों में समर्पित कर खुद को एक आदर्श गुलाम बनाना होता है । इसी कारण हम अक्सर कहते रहते है कि भक्ति भारत को श्राप है। 
दुःखद है कि बुद्ध व बाबा साहेब के भक्तों की संख्या में घोर इज़ाफ़ा हो रहा है, भीम आर्मी जैसे संगठनों के लोग इसके ज्वलंत उदाहरण है। बुद्ध व बाबा साहेब के भक्तों की संख्या में घोर इज़ाफे का मुख्य कारण खुद बहुजन समाज के नेता, बुद्धिजीवी और अन्य पढ़ें-लिखे लोग हैं। हमें इन लोगों की मंशा पर शक नहीं है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ये लोग बुद्ध व बाबा साहेब के विचारों को आम-जन तक सम्यक तौर पहुँचाने में कहीं न कहीं नाकाम रहे है। नतीजा, आम मूलनिवासी बहुजन बुद्ध-बाबा साहेब के विचारों को अपने जीवन में उतारने के बजाय ये लोग बुद्ध-बाबा साहेब की भक्ति करने लगे है। लोग मनगढंत राम चरित मानस की तर्ज़ पर भीम चरित मानस का पाठ करने  कराने लगे हैं, कपोल-कल्पित भागवत-जागरण की तर्ज़ पर चंद्रोदय पाठ करने लगें। मतलब कि बुद्धिज़्म-अम्बेडकरिज़्म में घनघोर भक्ति का उदय। 
ध्यान देने योग्य बात है कि बुद्ध-अम्बेडकर दोनों ने ही ईश्वर को नकार दिया, भक्ति को इनकार कर दिया लेकिन आज के नासमझ-मूर्ख बहुजनों ने ही बुद्ध-अम्बेडकर को ही भगवान बनाकर उनकी भक्ति शुरू कर दी है। इतिहास गवाह है कि यही ईश्वरीकरण-भगवानीकरण व भक्ति बुद्ध व बुद्धिज़्म को निगल गया, बुद्ध को मनगढंत विष्णु का अवतार बना दिया गया। नतीजा, भारत से बुद्ध और बुद्धिज़्म दोनों लगभग मिट गये। अतीत में हमारे पूर्वजों द्वारा जो गलती बुद्ध व बुद्धिज़्म के सन्दर्भ में की गयी थी आज बहुजन समाज वही गलती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर व अम्बेडकरिज़्म के साथ भी कर रहा है। यदि बहुजन नहीं सम्भला तो वह दिन दूर नहीं है जब ब्राह्मण बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को कपोल कल्पित विष्णु का कलि अवतार घोषित कर देगा। ऐसा करते ही भारत की सरज़मी से बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर व अम्बेडकरिज़्म उसी तरह से नेश्तनाबूद हो जायेगें जैसे कि अतीत में बुद्ध व बुद्धिज़्म। 
परिणामस्वरूप, भारत से मानवता, तर्कवाद, वैज्ञानिकता और न्याय खत्म हो जायेगा, ब्राह्मणवाद कायम हो जायेगा, मूलनिवासी बहुजन समाज एक बार फिर से राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक रूप से अनाथ होकर निकृष्टतम अमानवीय ब्राह्मणों व ब्राह्मणी व्यवस्था का गुलाम बनकर उनकी गुलामी करने को मजबूर हो जायेगा। 
इसलिए भारत में मानवता, समता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय, तर्कवाद और वैज्ञानिकता की ज़िम्मेदारी भारत के बुद्ध-अम्बेडकरी अनुयायियों के ही कन्धों पर टिकी है। बुद्ध-अम्बेडकरी अनुयायियों की ये नैतिक-मानवीय-सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि वो भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज को जागरूक करें, लोगों को भगवान-भक्ति से मुक्ति पाने में उनका मार्गदर्शन उसी तरह से करें जैसा कि इतिहास में गौतम बुद्ध-बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने किया है। 
बहुजन समाज से हमारी ये अपील है कि आप सब बुद्ध-अम्बेडकर के अनुयायी बनिये, भक्त नहीं। हम सब के लिए गौतम बुद्ध, बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, सन्त कबीर दास, संत शिरोमणि संत रैदास, राष्ट्रपिता ज्योतिर्बा फूले, भारत की प्रथम महिला शिक्षिका माता सावित्री फूले, ममता व संघर्षमूर्ती माता रमाबाई, संत गाडगे, बहुजन महानायक मान्यवर काशीराम व अन्य सभी मानवता के महानायक-महानायिकाएँ आदि सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए सम्मानीय महान मार्गदर्शक, विचारक, शिक्षा मानवता के प्रतीक मात्र है, कोई ईश्वर या भगवान् नहीं। इसलिए इन सभी महान महानायकों-महानयिकायों का ईश्वरीकरण इन सभी महानायकों-महानयिकायों की निर्मम हत्या करना है। अब तय आप सब को करना है कि आप इन महान महानायकों-महानयिकायों के विचारों को जिन्दा रखकर उनकी संघर्ष गाथाओं से प्रेरणा लेकर समता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय, तर्कवाद, वैज्ञानिकता और मानवतावादी समाज के सृजन के लिए आगे बढ़ना चाहते हैं, या फिर उन सभी महान महानायकों-महानयिकायों के विचारों व उनकी संघर्ष गाथाओं की निर्मम हत्या कर निकृष्टतम अमानवीय ब्राह्मणी व्यवस्था की गुलामी करना चाहते हैं। 
फ़िलहाल, हकीकत तो ये है कि "द ग्रेट चमार" वाले ये जोशीले नवयुवक बाबा साहेब व उनके कारवाँ को जान ही नहीं पाए है। इसी का नतीजा है कि इन नवयुवकों ने बहुजन समाज को विखण्डित करने वाली "द ग्रेट चमार" की संकल्पना को ना सिर्फ गढ़ा है बल्कि बहुजन शत्रु ब्राह्मणी मीडिया के माध्यम से इन नवयुवकों ने "द ग्रेट चमार" जैसे जहर देश के कोने-कोने में पहुँचा दिया है। 
यदि नामों की संकल्पना पर गौर करें तो "द ग्रेट चमार" वालों और ब्राह्मण अटल बिहारी में कोई ज्यादा अंतर है। जैसा कि हम सब जानते है कि गौतम बुद्ध शांति, समृद्धि, ज्ञान-शिक्षा और मानवता के प्रतीक है लेकिन ब्राह्मण अटल बिहारी ने १९९८ में पोखरण में हुए विध्वंशकारी परमाणु परिक्षण को अपने आराध्य निकृष्टतम हिंसक क्रूर अमानवीय राम-कृष्ण-विष्णु-शंकर-इंद्रा आदि का नाम ना देकर शांति-शिक्षा-मानवता के प्रतीक गौतम बुद्ध का नाम देते हुए कहा कि "बुद्धा स्माइलिंग"। क्या ये बुद्ध की छवि को विकृत करने का निकृष्टतम कृत्य नहीं है? इसी तरह से बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर भी अहिंसा, ज्ञान-शिक्षा, शान्ति, समृद्धि व मानवता के प्रतीक है, बोधिसत्व है लेकिन "द ग्रेट चमार" वाले नवयुवकों ने भी, अपनी नासमझी में ही सही, शान्ति-शिक्षा व मानवता के प्रतीक बाबा साहेब के नाम पर एक सेना ही बना डाली है - "भीम आर्मी या भीम सेना"। सेना या आर्मी, ये शब्द खून-खराबे से जुड़े है, हिंसात्मक कृत्य का प्रतीक है। ऐसे में, क्या इन नासमझ नवयुवकों ने बाबा साहेब के नाम व उनके दर्शन को विकृत करने का कार्य नहीं है ? हमारे विचार से ऐसी उग्र और मूर्खतापूर्ण "द ग्रेट चमार" की संकल्पना अम्बेडकरिज़्म की हत्या करने का हथियार है। 
हालाँकि ये सत्य है कि सहारनपुर के स्थानीय स्तर पर भीम आर्मी वालों ने ब्राह्मणी सरकार की सहमति से दलित समाज के साथ हो रहे अत्याचार को देश के कोने-कोने में पहुँचाकर दुनिया के सामने ब्राह्मणी राजनीति, सरकारी ब्राह्मणी आतंकवाद व घिनौने ब्राह्मणी धर्म व इसके कुरूप चेहरे वाली व्यवस्था को बेनक़ाब करने का सफल प्रयास किया है। दलित-वंचित जगत के साथ हो रहे इस क्रूरतम अत्याचार के कई कारण है - जैसे कि बहुजन समाज के शासनिक-प्रशासनिक नुमाइंदों की अपने ही समाज के प्रति बेरुखी, दलितों का राजनीति, शासन-प्रशासन, सत्ता-संसाधन, संसद-विधानसभाओं, कार्यालय, सचिवालय, न्यायलय, मीडियालय, विश्वविद्यालय, उद्योगालय, सिविल सोसाइटी आदि में आज भी संविधान व लोकतन्त्र सम्मत समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का ना होना। १९५० के बाद से किसी भी ब्राह्मणी या ब्राह्मणी रोग से ग्रसित सरकार, जिसने आज तक शासन किया है,  द्वारा कभी भी देश के दलित-आदिवासी और पिछड़ों के सामाजिक उत्थान और जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए किसी कदम का ना उठाया जाना सबसे अहम् कारण है। 

फ़िलहाल यदि वापस "द ग्रेट चमार" और मुखधारा मिडिया के समीकरण पर आयें तो जैसा कि बहुजन समाज अच्छी तरह से जान चुका है कि तथाकथित मुख्यधारा मीडिया ब्राह्मणी रोगियों की गुलाम है, या यूँ कहें कि मुख्यधारा मीडिया खुद ब्राह्मणी रोग से ग्रसित ब्राह्मणी रोगी है। ऐसे में ये मुख्यधारा मीडिया कभी भी किसी भी दशा में भारत के मूलनिवासी बहुजनों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ों व कन्वर्टेड मोइनोर्टीज) की हितैषी नहीं हो सकती है। ये मुख्यधारा मीडिया कभी भी किसी भी कीमत पर ब्राह्मणों व ब्राह्मणी रोगियों की खिलाफत नहीं कर सकती है। इसलिए भारत की इस तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया को मुख्यधारा मीडिया कहने के बजाय मुखधारा मीडिया कहना ज्यादा उचित है। मुखधारा मीडिया का मतलब होता है - ब्रह्मा के मुख से पैदा होने वालों की भोपू मीडिया।  

फ़िलहाल हमारे मूलनिवासी बहुजन समाज को "द ग्रेट चमार" व मुखधारा मीडिया के समीकरण को समझने की जरूरत है। जैसा कि हम सब जानते है कि प्रतिदिन पिछड़े वर्ग की बहन-बेटियों के साथ गैंग रेप होता रहता है, दलितों के साथ अमानवीय अत्याचार होता रहता है, आदिवासियों को नक्सली करार देकर मौत के घाट उतरा जा रहा है, अल्पसंख्यकों की मॉब लीचिंग की जा रही है लेकिन ऐसे में भी अपने को भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहने वाली मुखधारा मीडिया खामोश ही नहीं रहती, बल्कि भगवा आतंकवादियों को देशभक्त भी साबित करती रहती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि ये मुखधारा मिडिया "द ग्रेट चमार" व इसके लोगों को इतना कवरेज़ क्यों दे रही है? ब्राह्मणी मीडिया भीम आर्मी में इतनी रुचि क्यों ले रही है? 

हम अक्सर कहते रहते है, लिखते रहते है कि जब ब्राह्मण आपका विरोध करे तो समझिये कि आप सही रास्ते पर है, जब ब्राह्मण खामोश रहे तो समझिये कि वो कोई ना कोई षड्यंत्र कर रहा है, और जब ब्राह्मण आपका सपोर्ट करने लगे तो समझ जाइये कि खतरा आपके सिर पर है। कहने का आशय यह है कि ब्राह्मण व ब्राह्मणी रोगी किसी भी कीमत पर, किसी भी सूरत-ए-हाल में आपका हितैषी नहीं हो सकता है। 
इस आधार पर बहुजन समाज और भीम आर्मी जैसे संगठनों को ये समझने की जरूरत है कि ये ब्राह्मणी मिडिया भीम आर्मी वालों को इतना कवरेज क्यों दे रही है ? हमारा स्पष्ट मत है कि ब्राह्मणी मिडिया भीम आर्मी का साथ इसलिए दे रही है क्योंकि भीम आर्मी का दिया "द ग्रेट चमार" की संकल्पना बहुजन समाज, बहुजन राजनीति, बहुजन एकता और बहुजन आन्दोलन के लिए कैंसर है। और, भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लिए "द ग्रेट चमार" रुपी कैंसर ब्राह्मणवाद के लिए प्राणवायु है। यही वजह है जिसके कारण ब्राह्मणी मिडिया द्वारा भीम आर्मी और "द ग्रेट चमार" को इतना कवरेज मिल रहा है। हालाँकि ये भी सच है कि "द ग्रेट चमार" और भीम आर्मी जैसे उन्मादी गैर-अम्बेडकरी संगठन इस बात से अन्जान है कि ये खुद अपने ही समाज के लिए कितने नुकसानदेह हैं। यही वजह है कि ये लोग ब्राह्मणों की चाल समझे बगैर अम्बेडकर कारवाँ के नाम पर ब्राह्मणवाद को मजबूत कर रहे है। 
यदि किसी को ये लगता है कि "द ग्रेट चमार" की संकल्पना व भीम आर्मी जैसे संगठनों से बहुजनों का उद्धार हो जायेगा तो वो नादान है, नासमझ है। यदि किसी को लगता है कि "द ग्रेट चमार" और भीम आर्मी अम्बेडकरवादी है तो वो अज्ञानी हैं। क्योंकि, जय भीम कह देने मात्र से यदि कोई अम्बेडकरवादी हो जाता है तो ब्राह्मणी ब्रिगेड आजकल जय श्रीराम के बजाय जय भीम का ही जाप कर रही है लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं है कि ब्राह्मण व ब्राह्मणी रोगी अम्बेडकरवादी हो गए है। अम्बेडकरवादी या अम्बेडकर अनुयायी बनने के लिए बाबा साहेब के विचारों के साथ-साथ बाबा साहेब के कारवाँ व कारवाँ के लक्ष्य को जानने व समझने की जरूरत है, बाबा साहेब का मिशन आपके कृत्य में दिखाई पड़ना चाहिए जो कि "द ग्रेट चमार" और भीम आर्मी वालों में पूरी तरह से नदारद है। इन लोगों ने भगवा आतंकवादियों की नक़लकर अपने माथे पर नीली पट्टी बाँधकर जय भीम करने के सिवा कुछ नहीं किया है। क्या ये अम्बेडकरवाद है ? उग्रता व उन्मादी भाषण अम्बेडकरवाद है क्या ? यही उग्रता सिखो के मामले में भिंडरवाला ने भी दिखाई थी। नतीजा, भिंडरवाला तत्कालीन सत्ता (कांग्रेस) के हाथों कठपुतली बनकर कांग्रेस के लिए काम करता रहा, और अंत में जब कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित होने लगा तो उसी कांग्रेस की सरकार ने देश की एकता-अखण्ता के नाम पर भिंडरवाला को नेपथ्य भेज दिया, कभी ना लौटने के लिए।
भिंडरवाला को मारने के चलते ही स्वर्ण मंदिर पर हमला हुआ जिसकी वजह से इंदिरा गाँधी की हत्या की गयी। परिणामस्वरूप, दिल्ली में ब्राह्मण द्वारा सिखों पर सुनियोजित आक्रमण किया गया जिसमें सरेआम सिर्फ और सिर्फ सिखों का क़त्ल-ए-आम हुआ, सिख महिलाओं और बच्चियों का गैंगरेप कर उनकों टायर में बांधकर जिन्दा जला दिया गया। मतलब कि जो भिंडरवाला सिखों का हितैषी बनकर सिखों के लिए काम करने का दम्भ भर रहा था वही भिंडरवाला ब्राह्मणों व ब्राह्मणी कांग्रेस सरकार के हाथ की कठपुतली बनकर अपने ही सिख समाज के लोगों की मौत का कारण बन गया, सिख महिलाओं व बच्चियों के गैंगरेप व जिन्दा जलाकर मारने की वजह बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भिंडरवाला एक दम्भी, अज्ञानी, उन्मादी व दिशाविहीन नौजवान था।

हमारे निर्णय में भिंडरवाला और भीम आर्मी के तथाकथित अध्यक्ष व इसकी गैंग के लोगों में कोई खास अंतर नहीं है। भिंडरवाला की तरह ही भीम आर्मी का अध्यक्ष भी दिशाविहीन, अज्ञानी, उन्मादी और नासमझ युवा है। भिंडरवाला का राजनैतिक इस्तेमाल ब्राह्मणी कांग्रेस ने किया था, भीम आर्मी वाले का राजनैतिक इस्तेमाल ब्राह्मणी बीजेपी कर रही है। भिंडरवाला की वजह से सिख मारे गए थे, भीम आर्मी की वजह से दलित मारे जा रहे है। भिंडरवाला ने अकाली दल का वोट काट कर कांग्रेस के लिए काम किया था, भीम आर्मी वाला भी, अपने स्थानीय स्तर पर ही सही, बीजेपी के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ों की अपनी पार्टी बीएसपी का वोट काटने की फ़िराक़ में है। 
भीम आर्मी के लोगों का उन्माद और उनकी कार्य-शैली किसी भी तरह से बुद्ध-अम्बेडकरी नहीं है। बुद्ध-अम्बेडकर ने कभी भी हिंसा का सहारा नहीं लिया था। बुद्ध-अम्बेडकर भारत के लोगों को मानवीय दिशा दे सके तो इसकी वजह थी उनकी मानवतावादी वैज्ञानिक विचारधारा, दूरदर्शिता, शांतिमय संघर्ष और अनुशासन लेकिन भीम आर्मी जैसे सगठनों में ये सब नदारद है। भीम आर्मी जैसे संगठन की संरचना देखिये, इसमें दलित समाज के जितने भी अनपढ़, अशिक्षित डिग्रीधारक युवा है सब इसके सदस्य हैं। सबने अपने जिले स्तर पर, तालुका स्तर पर भीम आर्मी के नाम का रजिस्ट्रेशन करवाकर सब अध्यक्ष आदि बने बैठे है। इनकों लगता है अनपढ़, अशिक्षित डिग्रीधारकों की फ़ौज बनाकर ये ब्राह्मणवाद के खिलाफ युद्ध जीत जायेगें। जबकि हकीकत तो ये है कि "द ग्रेट चमार" व भीम आर्मी वाले ब्राह्मणवाद के खिलाफ नहीं, बल्कि ब्राह्मणवाद को मजबूत करने के लिए संघर्ष कर रहे है। ब्राह्मणवाद को मजबूत करती इनकी पूरी की पूरी लड़ाई इनके एक शब्द "द ग्रेट चमार" से स्पष्ट हो जाती है जिसकों इन्होने मुखधारा मिडिया की मदद से देश के कोने-कोने में पहुंचा दिया है।
ध्यान रहे, जब हम किसी जाति विशेष को बढ़ावा देते हैं या उसकी जातिसूचक अस्मिता को स्थापित करने की कोशिश करते हैं जैसे कि "द ग्रेट चमार" तो इससे सकल बहुजन समाज का बोध ना होकर एक जाति विशेष का बोध होता है! इसलिए इस प्रकार के नामों, विचारों व ऐसे मंदबुद्धि मूर्ख विचारकों की मूर्खता से जो बहुजन समाज देश का 85% हिस्सा है, स्वतः कई हिस्सों में टूट जाता है! परिणाम स्वरुप, पूरा का पूरा मूलनिवासी बहुजन समाज कमजोर पड़ जाता है। बुद्धिष्ट जीवन-शैली वाले मूलनिवासी बहुजन समाज की गुलामी का एक कारण उनका जाति के नाम पर कई वर्गों बँट जाना भी है।
हमारे निर्णय में, यदि जातिसूचक विचारों, संगठनों संस्थानों व नामों के प्रयोग को विराम नहीं दिया गया तो इसी तरह से, "द ग्रेट चमार" जैसे नामों को बढ़ावा मिलता रहेगा।  और आने वाले समय में, "द ग्रेट चमार" की तर्ज पर "द ग्रेट धोबी""द ग्रेट नाउ""द ग्रेट अहीर""द ग्रेट कुर्मी", "द ग्रेट कुम्हार", "द ग्रेट भंगी", "द ग्रेट खटीक", "द ग्रेट पासी", "द ग्रेट केवट" व अन्य जाति विशेष के लोग भी इस तरह से "द ग्रेट" के रूप में सामने आते जायेगें। परिणाम स्वरूप, मूलनिवासी बहुजन समाज में एकता बनने के बजाय यह पूरा का पूरा मूलनिवासी बहुजन समाज स्वतः कई हिस्सों में टूट जाएगा, बिखर जाएगा! 
"द ग्रेट" के चलते "द ग्रेट" जातियों में जातीय कलह, जातीय वैमनस्य, जातीय भेदभाव, जातीय अत्याचार व संघर्ष बढ़ेगा! नतीजा, मूलनिवासी बहुजन समाज खुद को मजबूत करने के बजाय सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जातिवादी ब्रहम्णी व्यवस्था को ही मजबूत करेगा जबकि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर, बहुजन महानायक मान्यवर काशीराम साहेब और सकल बहुजन समाज के अन्य सभी नायक-महानायक / नायिका-महानायिका व खुद बहुजन समाज जाति, वर्ण-व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को नेस्तनाबूत कर समतामूलक समाज व समतामूलक संस्कृति की स्थापना करना चाहता है! सरल भाषा में कहें तो "द ग्रेट चमार" की संकल्पना ने मान्यवर काशीराम के चालीस साल से अधिक समय के संघर्ष के परिणामस्वरूप उनके द्वारा सभी शूद्र-दलित जातियों को एक सूत्र में पिरोकर बनायीं गयी बहुजन समाज की एकता की बुनियाद को चंद महीनों में ही हिलाकर रख दिया है। 
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यदि जाति व्यवस्था के तहत निचले पायदान की जातियों को राजनैतिक व आर्थिक तौर पर मजबूत कर दिया जाय तो ब्रहम्णी जाति व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर बैठी जातियां, खासकर ब्रहम्ण, खुद जाति व्यवस्था को खत्म कर देगीं या जाति उन्मूलन के लिए आन्दोलन करेंगी! लेकिन हमारे निर्णय मे, ये जानते हुए कि राजनैतिक व आर्थिक सत्ता क्षणिक होती है जबकि सामाजिक व सांस्कृतिक सत्ता दीर्घजीवी है, ऐसे में सवर्ण, खासकर ब्राह्मण, अपनी चिरकालीन सत्ता को कैसे छोड़ सकता है? जैसा कि हम सब अच्छी तरह से वाकिफ है कि जब सवर्ण, खासकर ब्रहम्ण, बहुजनों से हर क्षेत्र में पराजित हो जाता है तो जातीय श्रेष्ठता के बल पर ही अपनी स्वघोषित कपोल कल्पित उच्चता, बुद्धिमत्ता, महत्ता व महानता को साबित करने का अमानवीय प्रयास करता है। ऐसे में, सवर्ण, खासकर ब्रहम्ण अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातीय उच्चता, सांस्कृतिक महात्ता को साबित व स्थापित करने के अपने अचूक हथियार को इतनी आसानी से नष्ट क्यों करेगा ? इसलिए सवर्णों, खासकर ब्रहम्णों, से जाति उन्मूलन की उम्मीद लगाना आत्मघाती निर्णय होगा।
फिलहाल, इन्हीं भीम आर्मी के लोगों की तर्ज़ पर ही कुछ अम्बेडकर भक्त / भक्तिन अपने राजनैतिक लाभ के लिए आत्मरक्षा के नाम पर खुद बहुजन समाज के लोगों के जीवन को ही खतरे में डालने का काम कर रहें हैं / रहीं है। ये अम्बेडकर भक्त / भक्तिन अपने भड़काऊ भाषणों में अक्सर कहते रहते है / कहतीं रहती है कि "आप सब अपने झण्डी में डंडी नहीं, लाठी लगाकर चलों"। अब सोचने वाली बात है कि मौजूदा सरकार ब्राह्मणी है, संविधान के बजाय मनुस्मृति से शासन चलाया जा रहा है, ब्राह्मणी शत्रु राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शासनिक-प्रशासनिक तौर पर सशक्त है, ऐसे में क्या उससे उन्माद व हिंसा के जरिये पार पाया जा सकता है ? नहीं, बिलकुल नहीं। यदि हम किसी भी हिंसात्मक कृत्य की बात सोचेगें भी तो नुकसान बहुजन का ही होगा, हत्या बहुजनों की ही होगी, गैंगरेप बहुजनों की बहन-बेटियों का ही होगा। ऐसे में "झंडी की डंडी की जगह लाठी" की बात करने वाली मोहतरमा को ब्राह्मणी एजेंट पार्टियों से टिकट तो मिल जायेगा लेकिन बहुजन समाज की वही दुर्दशा होगी जो १९८४ में ब्राह्मणी आक्रमण में दौरान भिंडरवाला की वजह से सिखों का हुआ था। हमारा स्पष्ट मानना है क्रोध, उन्माद में छोटी-मोटी लड़ाईयाँ जीती जा सकती है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन का महायुद्ध कभी नहीं। बहुजन समाज को अपना आन्दोलन उसी तर्ज़ पर लड़ना चाहिए जैसे कि गौतम बुद्ध, बाबा साहेब और मान्यवर काशीराम आदि ने अपने बहुजन आन्दोलन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लोकतान्त्रिक संवैधानिक नैतिक मानवीय तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सकल मानवता के हित में बहुजन आन्दोलन को ना सिर्फ आगे बढ़ाया बल्कि बुलंदी के साथ लड़ते हुए लगातार फतेह भी हासिल की।
हमारे विचार से, जाति व वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करके सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवाद को मजबूत किया जा सकता है, जाति, वर्ण-व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को खत्म नहीं किया जा सकता है, और ना ही बुद्ध-अम्बेडकरमय (न्याय- समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित) भारत की स्थापना की जा सकती है!
इसलिए हमारा मानना है कि हम सबको "द ग्रेट चमार", "द ग्रेट धोबी", "द ग्रेट कुर्मी", "द ग्रेट अहीर" आदि जैसे नामों, विचारों व इसके दृष्टिविहीन स्वघोषित विचारकों व नेताओं से बचे रहना चाहिए, दूर रहना चाहिए। और, मूलनिवासी बहुजन समाज को स्वतंत्रता, समता व बंधुता के एक धागे में पिरोने वाले "मूलनिवासी बहुजन" शब्द को अधिक से अधिक प्रयोग में लाना चाहिए। इससे ब्राह्मणी व्यवस्था की सभी शूद्र जातियां, वंचित व आदिवासी जगत एक सूत्र में बधकर अपनी अस्मिता और अपनी पहचान को एक बेहतर ढंग से कायम करते हुए समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के लिए जातिवादी नारीविरोधी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिंदू धर्म व संस्कृति के खिलाफ चल रहे महासंग्राम को ना सिर्फ बेहतर ढंग से लड़ सकता है बल्कि बुलंदी के साथ जीता भी जायेगा। 
ध्यान रहे, हमारी मुक्ति (राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक) जाति, जातिव्यावस्था और ब्राह्मणवाद के खात्मे व समतामूलक समाज और संस्कृति की स्थापना में निहित है! इसलिए हम सभी मूलनिवासी बहुजनों का लक्ष्य जाति, जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को नेस्तनाबूत करते हुए समता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय, तर्कवाद, वैज्ञानिकता व मानवता पर आधारित समाज व संस्कृति की स्थापना ही होना चाहिए। इसी में, हमारी और हमारे सकल मूलनिवासी बहुजन समाज व भारत में मानवता की मुक्ति हैं, भलाई है।
सनद रहे,

"जाति, वर्ण-व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को मजबूत करके कभी भी किसी भी सूरत-ए-हाल में अंबेडकरवाद को कायम नहीं किया जा सकता"

धन्यवाद...
जय भीम...

 आपका अपना बहुजन साथी 

रजनीकान्त इन्द्रा 

फाउंडर - एलीफ

(Published on Page No.  24-26 in November 2018, Depressed Express Magazine) 

Monday, 10 July 2017

गॉंवों के स्कूलों में जातिवाद - हमारी कहानी, हमारी जुबानी

जाति भारत के समाज की वो सच्चाई है जिसे कोई नकार नहीं सकता है। जाति आधारित भेदभाव निकृष्टतम हिन्दू संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। जाति आधारित बस्तियाँ, गालियाँ, अत्याचार, शोषण-बलात्कार जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति की पहचान है। स्कूलों की क़िताबों और इतिहासकारों के लेखों और कहानियों में भारत के गांव बहुत सुन्दर दिखाई देते है लेकिन हक़ीक़त ये है कि इन तथाकथित मुख्यधारा के इतिहासकारों, कहानीकारों और सरकारों ने कभी भारत के गाँवों का सजीव चित्रण किया ही नहीं है। भारत में जातियों का एक ऐसा जाल है जिसमे हर क्षेत्र के हर स्तर पर बटवारा है, भेदभाव है। निकृष्टतम जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संरचना भारत के मनुवादी वैदिक सनातनी जातिवादी ब्राह्मणी हिन्दू समाज की मुख्य पहचान है।

गॉव के स्कूलों में जाति आधारित संरचना बहुत ही प्रबल और प्रखर रूप से दिखाई पड़ती है। शिक्षा से जागरूकता विकसित कर आने वाली पीढ़ियों में जाति के उन्मूलन का बीज बोया जा सकता है लेकिन भारत के ब्राह्मण-सवर्ण व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित घरों के साथ-साथ गांवों के स्कूलों में ही जाति व्यवस्था व इस पर आधारित सामाजिक संरचना को मजबूती प्रदान की जाती है। बच्चों को यहीं सिखाया जाता है कि कौन किस जाति से है। स्कूल में ही सिखाया जाता है कि किसके हाथ का बना खाना खाना चाहिए और किसके हाथ का नहीं। इन्हीं स्कूलों में बताया जाता है कि किसके साथ बैठकर खाना चाहिए और किसके साथ नहीं। इसका सबसे प्रखर उदहारण मिड-डे-मील में साफ-साफ दिखाई पड़ता है। मिड-डे-मील योजना में ब्राह्मण-सवर्ण, यहाँ तक कि ओबीसी बच्चों द्वारा बहिष्कृत समाज के रसोइये के हाथ से बना खाना खाने से इंकार कर देना, पिटाई कर देना, जातिसूचक गालियाँ देना, आदि बहुत ही आम है, सहज है। जहाँ कहीं रसोइया किसी सछूत समाज का होता है वहां पर ज़लालत और हिक़ारत के इस ब्राह्मणी हिन्दू तंत्र में बहिष्कृत समाज के बच्चे, जो कि आर्थिक रूप से सबसे ग़रीब होते है, कुपोषित होते है, कमजोर होते है, भी मिड-डे-मील से इंकार कर देते है क्योंकि इनको अलग कतार में बिठाकर खाना परोसा जाता है। ऐसे में बच्चे स्कूल मिड-डे-मील को छोड़ देना ज़्यादा पसंद करते है। बहिष्कृत जगत के इन बच्चों से स्कूलों के शौचालय, नाली आदि की सफाई कराई जाती है। कभी-कभी स्कूल का मास्टर जो बगल के ही गांव में रहता है, इन बच्चों से अपने शौचालयों और नालियों की सफाई भी करवाता है। ऐसे में गरीबी-लाचारी और ग़ुरबत के मारे ये बच्चे अक्सर बीच में ही पढाई छोड़ देते है।

यदि आगे गौर करें तो हम पाते है कि स्कूल का मास्टर बहिष्कृत जगत के बच्चों को जातिवादी मानसिकता के चलते सिर्फ और सिर्फ पासिंग मार्क्स ही देता है, और फिर बहिष्कृत समाज के बच्चों के माँ-बाप से शिकायत करता है कि आपका बच्चा पढ़ने में बहुत कमजोर है, बेहतर होगा कि इसे किसी काम-धंधे पर लगा दिया जाय तो ऐसे में घर की आमदनी भी बढ़ जाएगी और वैसे भी ये पढ़-लिख कर कौन सा साहेब बन जायेगें। बहिष्कृत जगत के लोग आँख बंद करके इन स्कूल वालों पर विश्वास करते है जिसके तहत अक्सर देखा जाता है कि बहिष्कृत जगत के लोग अपने बच्चों को स्कूल से बाहर निकलकर उनकों किसी काम-धन्धे और मजदूरी में लगा देते है। ये आज के भारत की वो सच्चाई है जिससे लगभग हर नेता, अधिकारी और ब्राह्मणी रोग से बीमार समाज के लोग बिना सोचें-समझें ही सीधे इंकार कर जाते है। ब्राह्मणी मानसिक रोग से बीमार लोग किसी एक बहिष्कृत जगत के बच्चे को किसी अच्छे पद पर देख लेते है तो इनको लगता है कि बहिष्कृत जगत का हर बच्चा आगे निकल चुका है। इनको बहिष्कृत जगत का बढ़ता कदम रास नहीं आ रहा है। सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी रोग से पीड़ितों द्वारा वंचित जगत के समुचित स्वप्रतिनिधित व सक्रिय भागीदारी (तथाकथित आरक्षण) के विरोध का सबसे बड़ा कारण यही है।

आज सबसे बड़े दुःख की बात ये है कि ओबीसी वर्ग भी वंचित जगत के साथ उसी तरह से पेश आ रहा है जैसे कि ब्राह्मण। ओबीसी और एससी-एसटी दोनों ही भारत के पीड़ित समूह है। इनका शोषक एक ही है -ब्राह्मण और अन्य सवर्ण। इसके बावजूद एक जुट होकर अमानवीय ब्राह्मणी व्यवस्था और इसके रक्षकों से लड़ने के बजाय ओबीसी वर्ग बहिष्कृत जगत के लिए नव ब्राह्मण के रूप में सामने आ रहा है। 

हमारे ही गांव के एक यादव जी है, जो कि प्राइमरी में अध्यापक है, वो बताते है कि प्राइमरी स्कूलों में अध्यापक तास-पत्ती खेलते है। उनकों सिर्फ और सिर्फ वेतन से मतलब है। बच्चे क्या करते है, इससे उनकों कोई फर्क नहीं पड़ता है। यादव जी इसका कारण बताते हुए कहते है कि अध्यापकों का मानना है कि इनकों क्या पढ़ाना, ये सब चमार ही तो है। सामान्यतः आज के पिछड़ों की वंचित जगत के प्रति यही मानसिकता है, यही सच्चाई है। आज प्राइमरी स्कूल में लगभग ९५% बच्चे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ही है, जिनमे अधिकांश तादात में चमार, अन्य अछूत व अनुसूचित जाति के बच्चे है, क्योंकि सवर्णों और पिछड़ों के बच्चे कान्वेंट और पब्लिक स्कूल (ये बिडंबना है कि भारत में प्राइवेट स्कूल को पब्लिक स्कूल कहा जाता है) में जाते है। यादव जी के कहने का मतलब यह है कि प्राइमरी में यदि अध्यापक बच्चों का ख्याल नहीं रखता है, प्राइमरी में यदि पढाई-लिखाई नहीं होती है तो इसकी एक मुख्य वजह जाति है, एक जाति विशेष (चमार व अन्य अछूत-अनुसूचित जाति) के बच्चों का प्राइमरी स्कूलों मे पढ़ना है। 

ऐसे में इन ओबीसी समुदाय से आने वाले अध्यापकों को भी यही लगता है कि चमारों आदि को पढ़ना नहीं चाहिए। ये पढ़-लिख कर क्या करेगें? खुद मेरा एक सहपाठी, पिछड़े वर्ग की कुर्मी जाति से है, और जो प्राइमरी स्कूल में अध्यापक है, वो भी इसी मत का समर्थन करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि प्राइमरी स्कूलों में सवर्णों के बच्चे होते तो ये ओबीसी अध्यापक बच्चों को पढ़ाते। 

हमारे विचार से हुक्मरानों को इन ज़मीनी हकीकतों से रू-ब-रू होना चाहिए। बेहतर होगा कि या तो सरकार प्राइमरी स्कूलों को बंद कर दे, और वंचित जगत के बच्चों को पढ़ने की फीस और उनके रहने के लिए आवास की व्यवस्था करते हुए इन बच्चों को पब्लिक स्कूलों (प्राइवेट-कॉन्वेन्ट स्कूलों) में दाखिला दिलाये या फिर सभी के बच्चों को प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के लिए नीति लाये। संक्षेप में कहे तो पूरे भारत में एक सामान शिक्षा नीति कड़ाई के साथ लागू की जाये जिसमे पाठ्यक्रम, माहौल, आधारभूत संरचना, हॉस्टल और अन्य सभी चीजें हर समाज के हर बच्चे के लिए सामान हो। इस पूरी व्यवस्था में देश के हर तबके के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का पूरा ख्याल रखा जाय।

फ़िलहाल हमें यहाँ दुःख यह हो रहा है कि यदि ब्राह्मण-सवर्ण समाज के लोग अपने ब्राह्मणी मानसिक रोग के चलते चमार-अछूत-वंचित जगत से नफरत करे तो समझ आता है लेकिन खुद पीड़ित पिछड़ा वर्ग भी वंचित जगत का विरोध कर रहा है, या यूँ कहें कि अधिकांश ओबीसी के लोग भी वंचित जगत के लोगों से छुआछूत व नफ़रत करते है। ये भी नहीं चाहते है कि वंचित जगत के बच्चे भी पढ़े-लिखे और आगे बढ़े। अपने आपको उच्च जाति का बनाने के लिए आज का ओबीसी वर्ग वंचित जगत के लिए एक नव ब्राह्मण के रूप में सामने आ रहा है। ये ओबीसी हमारे भारतीय मूलनिवासी समाज के घर में पैदा हुआ ब्राह्मणी मानसिक रोग से ग्रसित ब्राह्मण है। इसलिए ये ओबीसी, जो कि नव ब्राह्मण है, सवर्णों से भी ज़्यादा ख़तरनाक है। इसमें जागरूकता लाने की नितांत आवश्यकता है। न्याय-स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व पर आधारित भारत के निर्माण के लिए इस नव ब्राह्मण (ओबीसी) वर्ग के लिए फुले-अम्बेडकरी दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।

फ़िलहाल, अब हम अपने स्कूल के कहानी को आगे बढ़ाये तो हमारा स्कूल भी इसी जातिवादी व्यवस्था का शिकार रहा है। जब हम अपने प्राइमरी पाठशाला की ओर रुख करते है तो हम पाते है कि उस समय ब्राह्मणों, ठाकुरों, बनियों, शूद्रों और बहिष्कृत जगत के बच्चे प्राइमरी पाठशाला में ही पढ़ते थे, लेकिन इन बच्चों के बैठने में वही व्यवस्था थी जो आज है। हर वर्ग के बच्चों की कतारे अलग-अलग होती थी। मास्टर ब्राह्मण जाति से था। उसका बच्चों की पढाई से कोई वास्ता नहीं था। बच्चों से क्यारी की गुड़ाई, सफाई कार्य में बड़ी लगन से लगाया जाता था। हमें ये याद नहीं है कि हमने कभी किसी ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया के बच्चों को क्यारी की गुड़ाई या सफाई करते हुए देखा हो। इस कार्य में लगभग सभी बहिष्कृत जगत के ही बच्चे होते थे।

फ़िलहाल प्राइमरी पाठशाला से आगे चल कर जब हम जूनियर हाई स्कूल की तरफ रुख करते है तो जातिवादी टिप्पणी तथा भेदभाव प्रबल और प्रखर रूप से सामने आती है। इस स्कूल में अधिकतर अध्यापक ओबीसी वर्ग (अहीर, कुर्मी, कुम्हार) के थे। इसके अलावा तीन ब्राह्मण, एक ठाकुर भी था। इस स्कूल में भी लिपाई-पुताई का कार्य आम था। इस स्कूल में भी हमने कभी किसी ब्राह्मण-सवर्ण की लड़की को लिपाई-पुताई करते नहीं देखा है। अक्सर जब कभी साफ-सफाई और लिपाई-पुताई की बात होती थी तो सवर्णों की लड़कियाँ अनुपस्थित होती थी। स्कूल का मास्टर पहले ही गोबर लाने और लिपाई करने वालों को उनकी जिम्मेदारी सौप देता था। ये जिम्मेदारी हमेशा शूद्रों के बच्चों पर ही होती थी। सवर्णों के बच्चों को भूलकर भी स्कूल के मास्टर उन्हें इस कार्य में नहीं लगतें थे, लेकिन यदि शूद्र और वंचित जगत के बच्चे इस कार्य में कोई भी हीला-हवाली करते थे तो उनकी पिटाई निश्चित थी। 

हमने देखा है कि स्कूलों में गोबर लाने में शूद्रों के बच्चे जरूर होते थे लेकिन लिपाई-पुताई के कार्य में शूद्रों की लड़कियाँ कभी-कभार ही होती थी, और यदि होती भी थी तो वो बहिष्कृत-अछूत-वंचित जगत की लड़कियों से अलग ग्रुप बनाकर कार्य करती थी। मतलब कि साफ-सफाई, लिपाई-पुताई, कूड़े-कचरे आदि की सफाई अछूत-बहिष्कृत समाज की बच्चियों के ही जिम्मे रहती थी। और आज भी तमाम स्कूलों में ये सब काम इसी चमार-अछूत-वंचित वर्ग की बच्चियों से ही कराया जाता है। फ़िलहाल, वो शूद्रों की बच्चियां, वंचित जगत की बच्चियों से मिलना-जुलना नहीं चाहती थी क्योकि प्राइमरी स्कूलिंग के दौरान ही उनकों अच्छी तरह से समझा दिया गया होता है कि तुम्हारे मित्र कौन होगें, किसके साथ तुम्हें रहना है, किसके साथ कार्य करना है, और किसके साथ व किसके हाथ का खाना खाना है, पानी पीना है इत्यादि।

इसी कड़ी में सत्र के अंत समय में गृह विज्ञान विषय के तहत होने वाले खाना-खज़ाना कार्यक्रम के दौरान जाति सर्वाधिक प्रखर रूप से सामने आती थी। अध्यापक बिल्कुल साफ तौर पर कह देता था कि कौन छात्र और छात्रा कौन-सा बर्तन लेकर आएगी, किसके घर से आटा आएगा और किसके घर से चावल। अध्यापक इन निर्देशों को देते समय अपनी ब्राह्मणी गुलामी का पूरा ख्याल रखते थे। कभी भी कोई भी बर्तन वंचित जगत के बच्चों से लाने को नहीं कहा गया है। खाना बनाने के दौरान वंचित जगत के बच्चियों की भागीदारी पूर्णता शून्य होती है। वंचित जगत की इन लड़कियों को स्कूल की लिपाई-पुताई और झाड़ू तक सीमित कर दिया जाता है। इसके अलावा बहिष्कृत जगत की छात्राओं को कोई आज़ादी नहीं थी, सिवाय अपने लिपाई-पुताई, झाड़ू-कटका के मेहनताना के, जो उन्हें बने पकवान के रूप में दिया जाता था। इस तरह के सामाजिक गैर-बराबरी जातिवादी भेदभाव के चलते वंचित जगत की छात्राएं अक्सर इस दिन अनुपस्थिति रहना पसन्द करती थी। यदि आ भी गयी तो मार्क्स की लालच में अपनी ड्यूटी करके बिना कुछ खाये, मतलब कि लिपाई-पुताई, झाड़ू-कटका का मेहनताना लिए बगैर, कोई बहाना करके घर चली जाती थी।

इसी कड़ी में, एक वाकया और है जो जातिवाद को बयां करता है। बात उस समय की है जब हम सातवीं में पढ़ते थे और हमारी नन्हीं प्यारी व घर की लाड़ली बहन (दीपशिखा इन्द्रा उर्फ़ अंकिता) उस समय तीसरी ज़मात में पढ़ती थी। छोटी-नन्हीं बच्ची थी। समाज के ठेकेदारों की नीच उच्चता की उसे कहाँ समझ थी। इसी खाने खज़ाने के कार्यक्रम के तहत अंकिता अपने मन से घर से थाली लेकर आयी थी। काफी उत्साहित थी लेकिन जैसे ही ब्राह्मण अध्यापक को पता चला उसने उससे पूछा तुम्हारी थाली कौन है? जैसे ही अंकिता ने बताया उस ब्राह्मण अध्यापक ने तुरन्त अंकिता की थाली उठाकर बाहर फेंक दिया। अंकिता उस समय ये नहीं समझ पायी थी कि उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया? हम सब अच्छी तरह से जानते है कि अध्यापकों के विचारों और बर्ताव का बच्चों पर बहुत गहरा असर पड़ता है। और, इस प्रकार के ब्राह्मणी कृत्यों से ही बच्चा जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच की बर्ताव सीखता है।

आगे इसी कड़ी में, अंकिता एक बार अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों के संग उन्हीं में से एक लड़की, जो कि शूद्र वर्ण के कुर्मी जाति के तहत आती है, के साथ उसके घर गयी थी। उसके घर पहुँचने पर उसके घर वालों ने सबको पानी का साफ-सुथरा गिलास दिया और अंकिता को एक गन्दे गिलास में पानी दिया जिसमे से बास आ रही थी। अंकिता ने तुरन्त पानी पीने से इंकार कर दिया। उस समय अंकिता की उम्र बहुत कम थी, इतनी समझ नहीं थी कि ऐसा क्यों हो रहा है, लेकिन क्या हो रहा है इसकी समझ थी। इसलिए अंकिता ने पानी पीने सा इंकार कर दिया। भारत के घरों-गांवो और समाज के हर स्तर पर ये जातिवादी छुआछूत का भेदभाव बहुत सहज व आम है।

बहिष्कृत जगत की बच्चियों के साथ ये सामान्य जातिवाद ही नहीं, इसके अलावा असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम बहुत ही आम है। राजस्थान की बहुजन लाड़ली डेल्टा मेघवाल के साथ घटी घटना इसका सबसे चर्चित व पुख़्ता प्रमाण है। इसी तरह से हमारे स्कूल में भी बहिष्कृत जगत की बच्चियों की साथ अभद्र टिप्पणी बहुत ही आम था, या यूं कहें कि अध्यापकों ने इसे स्कूल का कल्चर ही बना दिया था।

आज के स्वतंत्र भारत में हमारे ओबीसी बाहुल्य स्कूलों में भी बहिष्कृत जगत की बच्चियों के साथ वही सामंतवादी ब्राह्मणी बर्ताव हो रहा है जो सदियों से वंचित जगत के साथ ब्राह्मणी व्यवस्था के तहत होता आ रहा है। ये उस समय की बात है जब हम आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। इस दौरान लड़कियों की उम्र कम से कम १४ वर्ष की होती है। गावों में तो देर से दाखिला होने की वजह से आठवीं ज़मात तक लड़कियों की उम्र १६-१७ साल तक हो जाती है। इस उम्र में छात्राओं के शारीरिक बनावट में काफी परिवर्तन आ चुका होता है। ये हमारे आठवीं के कक्षा की घटना है जिसे आप उस स्कूल की संस्कृति भी कह सकते है। जब बहिष्कृत जगत की छात्राएं अध्यापक के पास गृह-कार्य की कॉपी चेक कराने जाती थी तो अध्यापक उनके कलाई मरोड़ देता था। अध्यापक इन वंचित जगत की छात्राओं की कलाई तब तक मरोड़ता था जब तक छात्राएं नीचे की तरफ पूरी तरह से झुक नहीं जाती थी। इसके पश्चात अध्यापक बहिष्कृत जगत की इन छात्रों के कमीज़ के अन्दर झांककर कहता था कि तुम्हारे ज़ीरों तो काफी बड़े हो गए है। कल मैंने तुझें गन्ने के खेत के पास देखा था। तुम वहां क्या कर रही थी? किसी से बात कर रही थी? कौन था वो? लगता है उसने मदद की है, इसीलिए तुम्हारे ज़ीरों काफी बड़े हो गए है। इस तरह की टीका-टिप्पणी करने बाद इन वंचित जगत की छात्राओं को ज़ीरो मार्क्स ही अवार्ड मिलता है। हालाँकि वंचित जगत की छात्रएं बहुत ही प्रबल और प्रखर रूप से इसका विरोध करती थी लेकिन हमारे सवाल ये है कि ये सब वंचित समाज की छात्राओं के साथ ही क्यों होता था ? उसी क्लॉस में ब्राह्मणों की लड़कियाँ पढ़ती थी, ठाकुरों की लड़कियाँ थी, अन्य सवर्णों की लड़कियाँ थी, खुद शूद्र वर्ग के अहीरों, कुर्मियों आदि की लड़कियाँ भी थी लेकिन उनके साथ किसी भी अध्यापक ने ऐसा कभी नहीं किया जबकि ज़ीरों तो ब्राह्मणों-सवर्णों और शूद्रों की लड़कियों के भी बड़े हो चुके थे, बल्कि कुछ ज़्यादा ही बड़े थे।

इस तरह से एक अध्यापक द्वारा किसी भी छात्राओं के साथ छेड़छाड़, छीटाकसी और टीका-टिप्पणी पूरी तरह से ग़लत है, अमानवीय है। फ़िलहाल हम यहाँ पर ग़लत-सही की बात ना करके ये कहना चाहते है कि इस तरह का बर्ताव एक खास तबके, चमार-अछूत-वंचित-बहिष्कृत समाज, की छात्राओं के साथ ही क्यों ? यदि यही बर्ताव ब्राह्मणों-सवर्णों और शूद्र छात्राओं के साथ होता तो मामला दूसरा बन जाता लेकिन ऐसा असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम एक खास तबके की छात्राओं के साथ होना सिर्फ और सिर्फ जाति की वजह से ही है। इसी तरह जब होमवर्क पूरा ना हो या टेस्ट में गलतियाँ मिल जाये तो अछूत-वंचित जगत के बच्चों के हाथों पर गिरने वाली छड़ी की मार में वज़न अन्य की तुलना में ज्यादा ही होता था।

राजस्थान सरकार द्वारा सम्मनित नन्ही बच्ची डेल्टा मेघवाल का स्कूल में बलात्कार, और फिर हत्या इसी जातिवादी ब्राह्मणी संस्कृति के दायरे में आता है। ये सारे के सारे अत्याचार, शोषण और असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम, एट वर्क प्लेस अराउंड कंट्री साइड आदि जाति की वजह से ही होते है। इसी मानसिकता के चलते देश में हर रोज तमाम वंचित जगत की महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार व हत्या जैसे निकृष्टतम व जघन्यतम जुर्म होते है।

जिस उम्र में हमारे लोगों के साथ ये सब हो रहा था, बुरा तो बहुत लगता था लेकिन समझ भी कम थी, जानकारी भी नहीं थी, और अच्छे बच्चे अध्यापक की बात नहीं काटते है जैसे ब्राह्मणी पॉलिसी के तहत हम कभी भी इन सब का विरोध नहीं कर पाये। लेकिन यही सब बाते अब याद आती है और बहुत तकलीफ देती है। दिन-प्रतिदिन घटित हो रही घटनायें हमें झकझोर कर रख देती है, आँखों से नींद गायब हो जाती है, शायद इसीलिए ये आपबीती लिख रहे है, अपनी पीड़ा, अपनी वेदना बयां कर रहे है, और चीत्कार कर कह रहे है कि यही निकृष्टतम जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई है।

सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था जैसी निकृष्टतम व अमानवीय संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था शायद ही दुनिया के किसी कोने में मौजूद होगी। इस देश की सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में बहिष्कृत जगत के छात्र-छात्राओं को बहुत ही निकृष्टतम जटिलतम जघन्यतम और अमानवीय परिस्थितयों से गुजर कर अपनी शिक्षा पूरी करनी पड़ती है लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि ये बहिष्कृत भारत के बच्चे ऐसी परिस्थितियों में भी पढ़-लिखकर आगे ही नहीं आ रहे है बल्कि प्रबल, प्रखर और तीव्र वेग के साथ आगे आ रहे है। हमारा दृढ विश्वास है कि ऐसी जघन्यतम और अमानवीय परिस्थितयों में पढ़-लिखकर आगे आ रहा वंचित जगत ही न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के सपनों के सुन्दर भारत निर्माण करेगा।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली
जुलाई १०, २०१७

Friday, 7 July 2017

लखनऊ विश्वविद्यालय में जातिवाद - हमारी कहानी, हमारी जुबानी

बचपन में घटी जातिवादी घटनाओं और एनआईटी-इलाहाबाद में सरेआम जातिवाद का सामने करने बाद, हमारा मन इन्जिनीरिंग से पूरी तरह उखड गया। ये समझ में चुका था कि इंजिनियर बनकर सिर्फ और सिर्फ अपना पेट पला जा सकता है लेकिन वो सम्मान हासिल नहीं किया जा सकता है जिसका एक इन्सान को हक़ है। इसी के तहत हमारा झुकाव इन्जिनीरिंग के बजाय सामाजिक विज्ञानं और हिन्दू धर्म शास्त्रों की तरह हो गया। पहले ही सेमेस्टर में हमने ये ठान लिया कि कुछ ऐसा करना है जिससे कि हमें भी इन्सान को का इन्सानी हक़ मिल सके। एनआईटी-इलाहाबाद में गुजरे चार सालों के दरमियान हमने इन्जिनीरिंग की किताबें पढ़ने के बजाय मनुस्मृति, ऋग्वेद, पुराण पढ़ा जिसके परिणाम स्वरुप हिन्दू सामाजिक व्यवस्था से परिचित हो सका। इस निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व्यवस्था के इलाज़ ढूढ़ने के क्रम में एक मात्र नाम जो सामने आता है वो है बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर का। एनआईटी-इलाहबाद में अम्बेडकर दर्शन को पढ़ने, जानने के दरमियान मनुवादी ब्राह्मणी व्यवस्था का आधुनिक तोड़ संविधान में मिला। बाबा साहेब के दर्शन संविधान का ऐसा प्रभाव पड़ा कि हमें अम्बेडकर दर्शन बाबा साहेब रचित संविधान एक गहरा लगाव हो गया, या यूँ कहें की मोहब्बत हो गया। इन्जिनीरिंग से मोहभंग  संविधान के प्रति जिज्ञासा के परिणाम स्वरुप हमने एक नयी दिशा में कदम रखा और लखनऊ विश्वविद्यालय के विधि विभाग में एलएलबी के त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया। 
लखनऊ विश्वविद्यालय की मेरिटलिस्ट में हमारा नाम चौथे स्थान पर था। इसलिए चौथे नम्बर पर जल्दी से १० अगस्त २०११ को एक बजे करीब लखनऊ विश्वविद्यालय के नवीन कैम्पस में स्थित विधि विभाग के एलएलबी के त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला हो गया। दाखिला होने के पश्चात् अपने कागज़ात को समेटने के बाद हम घर के लिए बढ़ रहे थे कि लखनऊ विश्वविद्यालय के नवीन कैम्पस के में गेट पर चार-पांच सीनियर छात्र खड़े गप्पें हाक रहे थे। हम जैसे ही गेट पर पहुँचे की गले में भगवा गमछा लपेटे, ललाट पर तिलक लगाए एक भक्त में हमें बुलाया। हम भी बहुत शालीनता के साथ उनके पास गये। उन लोगों ने पूँछा कि हम किस कोर्स के लिए आये थे। हमने भी जबाब दिया एलएलबी कोर्स। फिर दूसरे ने हमारा नाम और जिला पूँछा। फिर हमने अपना नाम "रजनीकान्त" और जिला "अम्बेडकरनगर" बताया। कुरता पहने गमछाधारी तीसरे भक्त ने पूँछा कि हम किस कैटेगरी में आते है। हमने भी जबाब दिया - अनुसूचित जाति। इतना सुनते ही तिलक वाले गमछाधारी भक्त, जिसने मुझे बुलाया था, ने एक पल भी गवायें बिना तपाक से बोलै भंगी कैटेगरी में एडमिशन मिला होगा। तुरंत एकाएक एनआईटी-इलाहाबाद के जातिवादी प्रो. एस एन पाण्डेय की याद ताज़ा हो गयी। ये सब निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी अत्याचार, हमारे और हमारे समाज के बच्चों पर बहुत ही आम है। फ़िलहाल हमने अपने आपको सभालते हुए तिलक वाले भक्त को जबाब दिया - लखनऊ युनिवर्सिटी की मेरिटलिस्ट में चौथा स्थान है, लिस्ट लगी है आप चेक कर सकते है। ये सुनते ही वो लोग सकपका गये। फिर एक सिम्पल ड्रेस में खड़ा छात्र हमारे पिछले एकैडमिक के बारे में पूँछा तो हमने बताया कि हमने एनआईटी-इलाहाबाद से इन्जिनीरिंग में स्नातक की डिग्री पायी है। फिर तिलक वाले भक्त ने पूँछा कि इतने बड़े कॉलेज से पढ़ने के बाद लॉ करने क्यों चले आये। हमने वक्त गवाये बिना कहा कि आप नहीं समझेगें। फिर हम वहाँ से चल दिये। 
कहने का मतलब यह है कि ब्राह्मणी रोग से पीड़ित लोग हर जगह मिल जायेगे क्योंकि एक नहीं, दो नहीं बल्कि पूरा का पूरा तथाकथित हिन्दू समाज ही ब्राह्मणी रोग से ग्रसित है। दाखिले के दिन ही इन रोगियों से हमारा साक्षात्कार हो गया। हम समझ गए कि यहाँ भी वही सब होना है जो एनआईटी-इलाहाबाद में इन्जिनीरिंग के दौरान हुआ था। 
हमने ये सारी घटना अपने बाबू जी को बतायी तो उन्होंने कहा हर जगह ब्राह्मण और ब्राह्मणी रोग से पीड़ित ग़ुलाम भरे पड़े है, आपका जिस मकसद के लिए वहाँ गए हो उस पर ध्यान लगाओं। हमने अपने मौसा जी, जो कि हमारे लिए सबसे अच्छे दोस्त है, को बताई उन्होंने ने भी यही कहा कि आप अपने मकसद पर ध्यान दो। 
लखनऊ विश्वविद्यालय और एनआईटी-इलाहाबाद दोनों के वातावरण में काफ़ी अंतर था। जहाँ एक तरफ़ एनआईटी-इलाहाबाद में पब्लिक स्कूल (भारत में ये कैसी बिडंबना है कि प्राइवेट स्कूल पब्लिक स्कूल के नाम से मशहूर है) के तथाकथित मेरिटधारी छात्र होते है, फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलते है, पहनावा भी काफ़ी तथाकथित मॉडर्न होता है, इधर-उधर कटी-फ़टी जीन्स पैंट एनआईटीयन्स की आधुनिकता का परिचय दे रही होती है, और तो और यदि कटी-फ़टी वाली जीन्स ना मिल रही हो तो तथाकथित मॉडर्न छात्र अपनी जीन्स को खुद काट लेते थे, गुडमॉर्निंग,  गुड आफ्टर नूनगुडइवनिंग, गुडनाइटकरते है वही दूसरी तरफ लखनऊ विश्वविद्यालय में अधिकांश छात्र अवधी, भोजपुरी और खड़ी हिंदी बोलते है, कुछ तथाकथित पब्लिक स्कूल के कटी-फ़टी जीन्स वाले तथाकथित मॉडर्न छात्र थोड़ा बहुत अंग्रेजी में वार्तालाप करते है, जय श्रीराम, राधे-राधे, प्रमाण करते, चरणस्पर्श करते है। तथाकथित पब्लिक स्कूल के कटी-फ़टी जीन्स वाले तथाकथित मॉडर्न छात्रों के कटे-फ़टे जीन्स का रहस्य आज भी मेरी समझ से बाहर है। फ़िलहाल कहने का मतलब यह है माहौल बिलकुल अलग था।
समय बीतता गया और दिसंबर २०११ में फर्स्ट समेस्टर का एक्ज़ाम हुआ फिर जून २०१२ में सेकेण्ड समेस्टर का। जैसा कि पहले ही लिख चुके है कि संविधान के प्रति जिज्ञासा ही हमें लखनऊ विश्वविद्यालय में एलएलबी के लिए खींच कर लायी थी। सेकण्ड समेस्टर में एक सब्जेक्ट संविधान का भी था। संविधान के प्रति जिज्ञासा और लगाव के कारण हमारा पूरा ध्यान संविधान पर ही रहता था। इस लिए संविधान की अच्छी तैयारी भी थी और अभ्यास भी। हमारे लिए संविधान के प्रश्नपत्र में पूँछे गए सारे प्रश्न बहुत ही आसान थे। हमने भी संविधान के प्रश्नपत्र में पूँछे गए पाँच प्रश्नों का बेहरीन उत्तर लिखा। लेकिन जब रिजल्ट आया तो हम ही नहीं बल्कि हमारे एलएलबी कोर्स के मित्र भी हैरान हो गए। हमें संविधान के प्रश्नपत्र में १०० में से मात्र १७ मार्क्स मिले थे। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि रजनीकान्त को १०० में से मात्र १७ मार्क्स मिले है लेकिन हकीकत यही थी।हमारे कुछ साथी कह रह थे कि आप कॉपी चेक कराने के लिए एप्लिकेशन लिखो तो कुछ लोग कह रहे थे कि इस प्रक्रिया में काफी टाइम लग जाता है, अच्छा होगा कि आप बैक पेपर का दुबारा एक्ज़ाम दे दो। हमने भी वह कार्यरत कर्मचारियों से पूछताछ की तो उन्होंने भी बैक पेपर का दुबारा एक्ज़ाम देने की सलाह दी। हमने बाद में बैक पेपर का फॉर्म भरा और एक्ज़ाम दिया और १०० में से ६० मार्क्स के साथ पास हो गये। हम दुबारे अच्छे मार्क्स के साथ पास तो हो गए लेकिन अभी तक समझ में नहीं आ रहा था कि हमें १०० में से १७ मार्क्स मिला क्यों था ? ऐसे कैसे हो सकता है ? इसी जद्दोजहद में उलझा रहा और आगे की पढाई चलती रही।   
इसके बाद इसी कड़ी में पांचवें समेस्टर का एक्ज़ाम फॉर्म भरने का समय आया जिसमे हमें वैकल्पिक विषय का प्रावधान होता है। जैसा कि हम पहले भी लिख चुके है कि हमारे एलएलबी की पढ़ाई का मकसद संविधान को और बेहतरी जानना, संविधान निहित मूलभूत मानवधिकारों को गहराई से समझना। ऐसे में हमने  लखनऊ विश्वविद्यालय के त्रिवर्षीय एलएलबी कोर्स के पाँचवे समेस्टर की परीक्षा में सातवें पेपर के लिए "वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रन" को चुना। इस पेपर को चुनने के पीछे वजह ये थे कि ये विषय संविधान निहित मूलभूत मानवाधिकारों से डायरेक्टली जुड़ा हुआ है। इस प्रश्नपत्र में भी हमारी तैयारी बेहतरीन थी। प्रश्नपत्र में सवाल बहुत ही विश्लेषणात्मक व निबन्ध टाइप के पूँछे गये थे। हमने भी बेहतरीन उत्तर लिखा। लेकिन जब रिजल्ट आया तो यहाँ भी हमें १०० में से मात्र ३५ मार्क्स मिले थे, जस्ट पासिंग मार्क्स। हमारे एक मित्र ने कहा कि रजनी भाई संविधान आपका पसंदीदा विषय था लेकिन उसमे आपको १०० से १७ मार्क्स मिले, संविधान निहित मूलभूत मानवाधिकारों से जुड़े "वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रनभी आपका अपना विषय है लेकिन इसमें भी आपको १०० में से मात्र ३५ मार्क्स मिले, जस्ट पासिंग मार्क्स। हम भी हैरान थे। फिर हमारे साथी ने कॉपी दुबारा चेक कराने की सलाह दी। हम भी इस बार चुप बैठने वालों में से नहीं थे। कॉपी को देखने के लिए प्रार्थना पात्र दे दिया, उस समय इसके भी रूपये ३०० लगते थे। तकरीबन १५ दिन बाद हमें फोन करके सोचित किया किया गया और कॉपी देखने के लिए बुलाया गया। 
हम भी बताये गए दिनाँक पर कॉपी देखने के लिए पहुंचे। बहुत सारे बच्चे आ जा रहे थे। हम ऑफिस के अंदर गए। वहां तीन बड़ी-बड़ी मेजे लगी हुई थे। कुर्सियाँ लगी हुई थी। एक मौजूद अधिकारी को हमने अपना परिचय दिया और कॉपी देखने के बारे में बताया। उस अधिकारी ने हमसे थोड़ा इंतज़ार करने को कहा और हम बगल की कुर्सी पर बैठकर इंतज़ार करने लगे। कुछ समय के बाद प्रो. मिश्रा, जो कि विधि विभाग के डीन भी रह चुके है, और एक दूसरे प्रोफ़ेसर आये। इसके पश्चात् उन तीनों अधिकारियों के सामने हमारी कॉपी निकलवाई गयी। कॉपी हमारे हाथ में देने से पहले प्रो. मिश्रा ने हमें साफ-साफ तीन निर्देश दिया -
) यदि मार्क्स को जोड़ने में कोई गलती हुई होगी तो उसे सुधर दिया जायेगा। 
) यदि भूल बस कोई उत्तर जाँचने  से रह गया है तो उसे जाँच कर उसका मार्क्स जोड़कर दे दिया जायेगा। 
) इसके आलावा यहाँ कुछ और संभव नहीं है, जाँचे गए उत्तर को दुबारा नहीं जाँचा जायेगा। 
हमने भी हाँ में सर हिलाते हुए कॉपी अपने हाथ में ले लिया। पहले मार्क्स की काउंटिंग की। काउन्टिंग बिलकुल सही थी। कुल ३५ मार्क्स ही आ रहे थे। सारे उत्तर चेक किये हुए थे। सभी पर कुछ ना कुछ मार्क्स दिए गए थे। करीब १५ मिनट के पश्चात् प्रो मिश्रा ने पूँछा कि काउंटिंग सही है, सारे उत्तर चेक हुए है ? हमने भी हाँ में सर हिला दिया। तो फिर उन्होंने कॉपी जमा करने की बात कही तो हमने कहा कि सर उत्तर लिखने में गलती कहाँ हुई है ये समझ ने नहीं आ रहा है। फिर प्रो. मिश्रा ने कहा कि आप पास तो हो ही गए हो, अगर नम्बर बढ़वाना चाहते हो तो बैक पेपर का फॉर्म भरकर दुबारा परीक्षा दे देना, नम्बर बढ़ जायेगें। इसकी फीस करीब रूपये १००० होगी, जाकर प्रशासनिक भवन वाली बिल्डिंग में पताकर लेना। हमने उनसे कहा कि सर कॉपी को देखने में अभी हमें समय लगेगा। फिर प्रो. मिश्रा ने कहा आराम से देखों कोई जल्दी नहीं है। हमने भी सर को धन्यवाद दिया और फिर कॉपी के पन्ने पलटने लगे। 
हम कॉपी के पन्ने पलट जरूर रहे थे लेकिन समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उत्तर लिखने में गलती कहाँ हुई है। फिर हमने सारे उत्तर को एक तरफ से पढ़ने लगा, हमें कोई ऐसी गलती नज़र ही नहीं आ रही थी। हमारी लिखावट भी काफी साफ-सुथरी और सुन्दर थी। फिर भी इतने काम मार्क्स! धड़कन बढ़ रही थी, समझ में कुछ नहीं आ रहा था। करीब २०-२५ मिनट के पश्चात् हमारी नज़र ४ मार्क्स वाले प्रश्न पर पड़ी जिसमे स्त्रीधन के बारे में हमने उत्तेर लिखा था। इस प्रश्न के उत्तर में हमने बाकायदा हिन्दू धर्म ग्रन्थों का उल्लेख करके स्त्रीधन के सम्बन्ध में लिखा था। इस उत्तर पर हमें ४ में से ३ १/२ (३.५) मार्क्स मिले थे। फिर हमने दीर्घ उत्तरीय प्रश्न की तरफ रूख किया, जो कि १५ मार्क्स के होते है, उसमे एक प्रश्न "आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत में महिलाओं की स्थिति" के बारे में पूँछा गया था। हमने बेहतरीन उत्तर लिखा था लेकिन हमें १५ में से ४ मार्क्स मिले थे। इन दोनों प्रश्नों को देखने के बाद हमें, हमारे सवाल का जबाब मिल गया कि क्यों ४ मार्क्स वाले लघु उत्तरीय प्रश्न के उत्तर पर ३.५ मार्क्स मिले है और क्यों १५ मार्क्स वाले दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के उत्तर पर सिर्फ ४ मार्क्स मिले है और कैसे कुल १०० में से सिर्फ और सिर्फ ३५ मार्क्स मिले है, जस्ट पासिंग मार्क्स ? 
प्रो. मिश्रा ने पहले ही हिदायत दे दी थी कि रीचेकिंग नहीं हो सकती है। इसलिए रीचेकिंग की कोई बात ही नहीं थी। हमने वहाँ बैठे अन्य दो अधिकारियों के समक्ष प्रो मिश्रा से अपना उत्तर पढ़ने के लिए विनती की लेकिन प्रो. मिश्रा ने रीचेकिंग संबन्धी हिदायत को दोहराते हुए पढ़ने से इंकार कर दिया, और कहा कि आपके उत्तर को मेरे पढ़ने से कोई फायदा नहीं होगा, इससे कोई मार्क्स नहीं बढ़ने वाले है। हमने प्रोफ़ेसर सर से कहा कि सर हम आपसे मार्क्स बढ़ाने के लिए बिलकुल नहीं कहेगें, केवल आप हमारे किसी भी एक उत्तर को पढ़ लीजिए, बस।  हम तुरन्त यहाँ से चले जायेगें। हमारे बार-बार मिन्नतें करने के बाद उन दोनों अधिकारियों ने प्रो. मिश्रा से कहा तो प्रो मिश्रा राज़ी हो गये। उन्होंने उन दोनों अधिकारियों के समक्ष प्रो मिश्रा जी ने "आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत में महिलाओं की स्थिति" वाले उत्तर को ही पढ़ा। उत्तर पढ़ने के पश्चात् प्रो मिश्रा ने कहा - "बेटा, कॉपी जांचने वाले प्रोफ़ेसर ने या तो आपका उत्तर सही से पढ़ा नहीं या तो....." दूसरा "या तो" बोलने के पश्चात् प्रो सर कुछ बोल नहीं पाये, वही रूक गये। कुछ देर तक दूसरे उत्तरों पर सरसरी नज़र से देखते हुए पन्ने पलटते रहे। फिर बोले, " बेटा, यदि आपको मार्क्स बढ़वाने हो तो बैक पेपर का फॉर्म भरकर फिर से परीक्षा दे दो, नंबर बढ़ जायेगें। आप इस सब चक्करों में ना फँसों, आपकी लिखावटआपके उत्तर और लिखने शैली बहुत अच्छी है। मेरे ख्याल से आपको सिविल सर्विसेस के लिए पढ़ाई करनी चाहिए।" वहां बैठे दोनों अधिकारीयों ने भी हाँ में सर हिलाते हुए प्रोफ़ेसर सर के सलाह का समर्थन किया। उनके सलाह को सुनकर हमने उन सबको धन्यवाद दिया। और, कहा, सर हम कोई बैक पेपर नहीं भरेगें, पासिंग मार्क्स ही सही, लेकिन हम पास हो गये है। सर, हमें कोई मार्क्स नहीं बढ़वाना है। हमें हमारा मार्क्स मिल गया। आपने ना चाहते हुए भी ना सिर्फ आपने हमारी कॉपी चेक की बल्कि उस पर मार्क्स भी दे दिया। हमने एक बार फिर उन सबको धन्यवाद दिया और ऑफिस से बाहर गये।
ऑफिस से बाहर आने के बाद हमने अपने दोस्तों को बताया कि हम जातिवाद के शिकार हुए है। इस लिए हमें काम ही नहीं बल्कि जस्ट पासिंग मार्क्स दिए गए है। दोस्तों को विश्वास नहीं हुआ। उनमे से एक ने कहा हमारी कॉपी पर सिर्फ रोल नम्बर लिखा जाता है तो कोई प्रोफ़ेसर कैसे आपकी जाति जान सकता है ? बात बिलकुल सही है। कॉपी पर सिर्फ और सिर्फ हमारा रोल नम्बर अंकित होता है तो इसके बेसिस पर जाती जानना और फिर जातिवादी भेदभाव करना असम्भव है। 
फिर हमने जान-बूझकर कुछ देर के लिए इस बात को किनारे करते हुए दूसरी बात छेड़ दी। हमने संविधान और बाबा साहेब से सम्बंधित बात करने लगे। फिर हमने उन लोगों से बाबा के बारे में कुछ भी एक-दो वाक्य बोलने को कहा। उनमे से सवर्ण, ओबीसी कैटेगरी में आने वाले दोस्तों ने एक-दो वाक्य बाबा साहेब से सम्बंधित बोला। फिर हमने उनके द्वारा बोले गए वाक्य को दुबारा दोहराया। हमने उनको याद दिलाया कि सवर्ण दोस्त ने अपने वाक्य में "अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल किया था, ओबीसी दोस्त ने "डॉ अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल किया था। और खुद हमने (वंचित जगत के छात्र ने) अपने उत्तर पुस्तिका में "बाबा साहेब अम्बेडकर", शब्द का और बाबा साहेब के उद्वरण का लगभग कर उत्तर के हर पेज पर लिखा था। 
फिर हमने अपने दोस्तों से पूँछा कि सेकण्ड समेस्टर के "संविधान" वाले प्रश्नपत्र व पांचवे समेस्टर के "वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रन" वाले प्रश्नपत्र के उत्तर में आपने बाबा साहेब का नाम या उनके द्वारा कहें तथ्यों को आपने कितनी बार इस्तेमाल किया था? जबाब में सवर्ण दोस्त ने कहा कि हमने एक-दो बार अम्बेडकर के नाम का इस्तेमाल किया था, ओबीसी दोस्त ने कहा कि उसने चार-पांच बार डॉ अम्बेडकर शब्द का इस्तेमाल किया था। लेकिन हमारा निजी तौर पर ये मानना था कि यदि भारत में संविधान, कानून, अधिकारों और महिला सशक्तिकरण की बात की जाय तो वह बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के जिक्र के बगैर नहीं की जा सकती है। हमारा मानना है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन, समाज सुधार, महिला सशक्तिकरण इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सही मायने में यदि किसी ने कार्य किया है तो वे एक मात्र बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ही है। भारत में बहुत से महात्मा, संत, समाज सुधारक आदि आये लेकिन इन सबने गाल बजाने के सिवा कुछ नहीं किया लेकिन बाबा साहेब ने सदियों से गुलामी में जी रहे वंचित जगत, आदिवासी जगत, पिछड़ों संग देश की आधी आबादी मतलब की महिलाओं को ब्राह्मणवादी कानून से हमेशा-हंमेशा के लिए आज़ाद करा दिया। सबकों मानवीय जीवन दिया। हमारा मानना है कि भारत में तथाकथित महात्मा गाँधी एण्ड कम्पनी का आन्दोलन भारत की आज़ादी के लिए नहीं बल्कि बल्कि सत्ता की बागडोर अंग्रेजों से हथियाकर ब्राह्मणों उनके गुलाम सवर्णों के हाथों में सौपना मात्र था। यही हुआ भी बाबा साहेब के इतने परिश्रम और संघर्ष के बाद भी वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यक को अधिकार तो जरूर मिल गए लेकिन सामाजिक बराबरी का अधिकार आज भी मुकम्मल नहीं हो पाया है। महिला आज़ादी के हिन्दू कोड बिल, जो कि सबसे अहम् था, ब्राह्मणों और उनके सवर्ण गुलामों पारित नहीं होने दिया। इस तरह से हमारा पूरी दृढ़ता संग यही मानना है कि यदि भारत में वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यक के मानवीय हकों के लिए कोई एक इन्सान लड़ा है तो वो बाबा साहेब ही है। इस लिए चाहे विषय संविधान का हो, मानवाधिकारों का हो, महिला सशक्तिकरण का हो या फिर ओवरऑल समाज सुधार का हो, भारत पुनरुत्थान व भारत निर्माण का हो, ये सारे विषय बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के जिक्र के बिना अधूरे है।  
इसलिए संविधान और वुमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रेन जैसे विषयों के पेपर्स में हमारे लिए बाबा साहेब के नाम व उनके उद्वरण का जिक्र ना सिर्फ सहज है बल्कि जरूरी भी लगता है। हमने इन पेपर्स के प्रश्नों के उत्तर में बाबा साहेब उद्वरण को लगभग हर पेज पर लिखा। हमने अपने दोस्तों को बताया और सिद्ध किया सवर्ण कैटेगरी वाला बाबा साहेब के नाम व उनके उद्वरण को बहुत ही अपरिहार्य स्थिति में ही इस्तेमाल करता है, वो भी "अम्बेडकर" के अनुसार वाली भाषा-शैली में। मण्डल कमीशन के बाद से पिछड़े वर्ग वाला थोड़ा सा बाबा साहेब के प्रति थोड़ा सम्मान दिखाते हुए "डॉ अम्बेडकर" के अनुसार वाली भाषा शैली का इस्तेमाल करता है जबकि वंचित जगत का हर इन्सान, हर बच्चा बाबा साहेब का नाम बोलने व लिखने के लिए अम्बेडकर शब्द लिखे या ना लिखे लेकिन "बाबा साहेब" का इस्तेमाल जरूर करता है। बाबा साहेब के प्रति ये शब्द सम्मान भाव का बोध करता है। जैसे-जैसे हम अम्बेडकर, डॉ अम्बेडकर से बाबा साहेब की तरफ बढ़ाते जाते है वैसे-वैसे बाबा साहेब के प्रति सम्मान भाव बढ़ता जाता है। भारत के ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था में बाबा साहेब के लिए "अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ बाबा साहेब और वंचित जगत ने नफ़रत करने वाला सवर्ण समाज ही करता है। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद से "डॉ" अम्बेडकर शब्द का इस्तेमाल पिछड़ा वर्ग करने लगा है, मतलब कि मण्डल कमीशन लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग के लोगों में बाबा साहेब के प्रति सम्मान बढ़ा है, पिछड़ा वर्ग ब्राह्मणी भाषा-शैली "अम्बेडकर" से आगे निकल कर बाबा साहेब के प्रति सम्मान भाव रखते हुए बाबा साहेब के लिए "डॉ "अम्बेडकर का इस्तेमाल करने लगा है। लेकिन वंचित जगत शुरू से ही बाबा साहेब का नाम बोलने लिखने के लिए अम्बेडकर शब्द बोले या ना बोले, लिखे या ना लिखे लेकिन "बाबा साहेब" शब्द जरूर बोलता है, लिखता है। इसके पश्चात् हमारे सवर्ण दोस्त ने कहा, हां रजनी भाई, लगता है आपकी कॉपी किसी ब्राह्मण या फिर ब्राह्मणी रोग से गुलाम ब्राह्मण या अन्य सवर्ण के हाथ लग गयी थी।
इसके पश्चात् ये पूरा वाकया हमने अपने बाबू जी और अपने मौसा जी को बताया तो दोनों लोगों ने कहा कि आज भी हर जगह वही ब्राह्मण और उनके गुलाम सवर्ण ही बैठे है। वे नहीं चाहते है कि वंचित जगत के लोग पढ़े-लिखे और आगे बढे। इसके बाद बाबू जी और मौसा जी दोनों ने कि अब आपको परीक्षा में अपना उत्तर बाबा साहेब का नाम लिखे बगैर सिर्फ उनके लिखे-बोले वाक्यों को अपनी भाषा में लिखना चाहिए। क्योकि यहाँ हमारा मकसद परीक्षा पास करना है, जहाँ तक रही बात साहेब और उनके मिशन की तो आप अपने लेख, ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों से आगे ले ही जा रहे हो। इसलिए अबकी बार किसी भी परीक्षा में बाबा साहेब का नाम लिखे बगैर उनके विचारों को अपनी भाषा लिखना, और आगे हमने ऐसा ही किया। इसे हमारी मजबूरी समझिये या फिर ब्राह्मणों का शिक्षण संस्थानों पर अवैध कब्ज़ा व आतंकवाद। हमारी ये मजबूरी कायरता नहीं है। ये सब शिक्षित बनों मन्त्र को जमीन पर उतरने के लिए कुछ पल मात्र के लिए किये गए समझौते के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि पढाई भी तो पूरी करनी है। हमारे समाज के लोगों को कभी ना कभी चाहें-अनचाहें रूप में ऐसे छोटे-मोटे समझौते करने ही पड़ते है। 
फ़िलहाल, इस तरह से एक अनुभवी प्रोफ़ेसर के लिए अम्बेडकर, डॉ आंबेडकर और बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर जैसे शब्दों को देखकर, पढ़कर इन शब्दों को बोलने लिखने वाले की जाति तय करना बहुत ही सहज है। मतलब कि सामान्य तौर पर यदि कोई बाबा साहेब के लिए "अम्बेडकरशब्द का इस्तेमाल करता है तो वो सवर्ण होगा, यदि कोई "डॉ अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल करता है तो वह पिछड़े वर्ग से होगा, और यदि कोई "बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल करता है तो वह वंचित जगत से होगा। इस तरह से सामान्य तौर पर किसी के लेख को पढ़कर उसकी जाति-वर्ण तय की जा सकती है।
बाबा साहेब और वंचित जगत के प्रति एन्टीनाधारी स्वघोषित विद्वानों (ब्राह्मणों व अन्य ब्राह्मणी रोगियों) के अन्दर भरे नफ़रत का एक वकया हमने जेएनयू के एक छात्र के थीसिस के सम्बन्ध में पढ़ा था, जिसमे साफ-साफ बाबा साहेब व वंचित जगत के प्रति गाइड (प्रोफ़ेसर) की नफ़रत साफ-साफ झलकती है। जेएनयू के एक छात्र, जो कि वंचित जगत से था, उसने अपने थीसिस में "बाबा साहेब" शब्द का प्रयोग किया था। इस पर उसके गाइड ने उससे कहा कि एकैडमिक वर्क में बाबा साहेब आदि जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते है। आप इसकों एडिट करके लाइये। उस छात्र के बाद दूसरे छात्र का नंबर आया तो उस छात्र ने गाइड से कहा कि सर मैंने भी वही गलती की है। इसलिए मुझे भी एडिट करना होगा, मै एडिट करके दुबारा लाता हूँ। इस पर गाइड (प्रोफ़ेसर) ने पूंछा कि आपने क्या लिखा है। इस पर उस छात्र ने कहा- सर, मैंने अपनी थीसिस में जवाहरलाल नेहरू शब्द के बजाय पण्डित नेहरू शब्द का इस्तेमाल किया है। इस पर गाइड (प्रोफ़ेसर) ने कहा, "कोई बात नहीं, बड़ों का सम्मान करना चाहिए।" 
अब सोचने वाली बात ये है कि जब एक छात्र ने अपनी थीसिस में बाबा साहेब शब्द का इस्तेमाल किया तो उससे कहा गया कि एकेडेमिक वर्क इस तरह के शब्द प्रयोग नहीं करते है जबकि वही पर दूसरे छात्र ने जवहेलाल नेहरू के पंडित नेहरू शब्द का इस्तेमाल किया तो इसे बड़ों का सम्मान कहा गया। अब हमारा सवाल ये है कि उस गाइड प्रोफ़ेसर ने ऐसा क्यों किया? पढाई-लिखाई, दूरदृष्टि, दार्शनिकता,  पत्रकारिता, शासन-प्रशासन, संविधान-कानून-वकालत, आर्थिक क्षेत्र, समाज सुधार, भारत पुनरुत्थान, भारत निर्माण, सामाजिक सरोकार या अन्य कोई भी क्षेत्र हो, बाबा साहेब का मुकाबला कौन कर सकता है। क्या बोधिसत्व, विश्वरत्न, शिक्षा प्रतीक, मानवता मूर्ति महानतम महामानव, नव बुद्ध, आधुनिक बुद्ध, आधुनिक भारत के पिता, संविधान शिल्पी, प्रख्यात इतिहासकार, मानवता महानायक, लेखक, एंथ्रोपोलॉजिस्ट, राजनेता, समाज सुधारक, सिम्बल ऑफ़ नॉलेज, ज्ञान सूर्य, वंचित जगत-महिला जगत के उद्धारक आदि नामों से सुप्रसिद्ध, प्रख्यात, बाबा साहेब से बड़ा और महानतम और कौन हो सकता है। इन साड़ी घटनाओं से ब्राह्मणों व अन्य गुलाम सवर्णों के ज़हन में बाबा साहेब और वंचित जगत के प्रति इनके मन कूट-कूट कर भरी नफ़रत साफ-साफ झलकती है, दिखाई देती है, प्रमाणित होती है। 
हमारे कहने का मतलब साफ है कि निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था में, किसी प्रोफ़ेसर के लिए किसी भी छात्र की किसी परीक्षा में उसकी उत्तर पुस्तिका पढ़ कर, किसी का लेख पढ़कर, किसी का भाषण सुनकर और सामान्य बातचीत में किसी की जातीय कैटेगरी का पता लगाना कठिन नहीं बल्कि बहुत आसान है। हाँ, हम शेर की खाल पहेने भेड़ियों का अपवाद हम सहर्ष स्वीकार करते है जैसे कि निकृष्ट ब्राह्मणी आरएसएस, बीजेपी, कांग्रेस और अन्य सभी ब्राह्मण व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित ब्राह्मणों के गुलाम आदि। 
फ़िलहाल अब ये बिना किसी संदेह के पूरी तरह से सिद्ध हो चुका है कि कैसे हमारे साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में जातिवादी भेदभाव हुआ। ये घटना लखनऊ विशविद्यालय से जरूर जुडी हुई है लेकिन भारत के हर संस्थान की कहानी है। ये निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई है। ये वो सच्चाई जी भारत का ब्राह्मण व अन्य सवर्ण जानता है, अपने जिंदगी में हर पल इस्तेमाल करता है, इसे रोग के साथ जीता है और एक दिन मर भी जाता है लेकिन मानाने को तैयार नहीं होता है। ये निकृष्टतम व्यवहार ब्राह्मणो व अन्य सवर्णों को बचपन से ही अकथित, अघोषित रूप से सीखा दिया जाता है, उनके चारित्र में शामिल कर दिया जाता है। इसे उसकी जीवन-शैली बना दी जाती है जिसके परिणाम स्वरुप वो इस निकृष्टता को अपने जीवन का केंद्र बिन्दु समझने लगता है। इसको नकार नहीं पाता है। ये उसके जीवन का एक ऐसा हिस्सा बन जाता है कि उसे यही उचित व न्यायपूर्ण लगाने लगता है। इस तरह से वह सारे भेदभाव पूर्ण व्यव्हार को अपने जीवन में उतारने के बावजूद इसे मानने से साफ-साफ इन्कार कर देता है। निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म व सस्कृति एक निकृष्टतम व अमानवीय बुराई है, रोग है। महानतम सामाजिक रोग विशेषज्ञ डाक्टर बाबा साहेब द्वारा की गयी सर्वश्रेठ डायग्नोसिस के बावजूद भयंकर व निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू रोग से पीड़ित ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य रोगी अपने आपको रोगी मानने से साफ-साफ इन्कार करते रहे है। नतीजा, गाय-गोबर-गौमूत्र में उलझा निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू समाज इस निकृष्टतम व अमानवीय ब्राह्मणी भयंकर रोग को दैवीय समझकर जिए जा रहा है।
हम बहुजन छात्रों व छात्राओं से यही अपील कटे है कि आप सब को इन्हीं ब्राह्मणों व ब्राह्मणी रोगियों के बीच में रहकर अपनी पढाई-लिखाई पूरी करना है। इसके पश्चात् हमें अपने अनुभव, ज्ञान और तर्कशक्ति से इस निरकिष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व सामाजिक व्यवस्था को हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तनाबूद करके स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व पर आधारित एक नवीन, मानवतावादी और वैज्ञानिक समाज का सृजन है। इस महानतम कार्य को पूरा करने के लिए आज हमारे पास बुद्ध-फुले-अम्बेडकर का दर्शन है। यही हमारा हथियार है। यही हमारे जीवन का आधार है। यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। यही हमारे नवीन समाज का आधार भी होगा।
हमारी जंग कठिन जरूर है लेकिन इसका परिणाम पहले से निश्चित व अटल है-"बहुजन की जीत, स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व पर आधारित नवीन समाज का सृजन"। हमें ये याद रखने की जरूरत है कि निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म-संस्कृति व सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इस महासंग्राम में हमारे पास खोने को कुछ नहीं है लेकिन पाने को सारा जहां है। 
जय भीम, जय भारत! 
रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली 
जुलाई ०६, २०१७